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________________ www.vitragvani.com सम्यग्दर्शन : भाग-2] [167 अनन्त जीव भिन्न-भिन्न हैं, वे सभी ‘जीवास्तिकाय' में आ जाते हैं। इस प्रकार जीवास्तिकाय में अन्तर्गत होने पर भी दूसरे अनन्त जीवों से भिन्न मैं एक चैतन्यस्वभावी जीव हूँ। इस प्रकार स्वभाव सन्मुख होकर अनन्त काल में नहीं किया हुआ ऐसा आत्मा का निर्णय अपूर्व भाव से करता है। निर्णय की ऐसी ठोस भूमिका के बिना धर्म की चिनाई नहीं होती। प्रश्न - ऐसे निर्णय का साधन क्या है? उत्तर - मन्दराग साधन नहीं है, अपितु ज्ञान और वीर्य का उत्साह ही उसका साधन है। ज्ञान और रुचि के अन्तर्मुख होने के उत्साह के बल से मिथ्यात्वादि प्रतिक्षण टूटते जाते हैं। ‘निर्णय' यह धर्म की ठोस भूमिका है परन्तु यह निर्णय कैसा? अकेले श्रवण से हुआ नहीं, परन्तु अन्दर में आत्मा को स्पर्श करके हुआ अपूर्व निर्णय; यह निर्णय ऐसा है कि कदाचित् देह का नाम तो भूल जाए, परन्तु निज-स्वरूप को नहीं भूलता। देह का प्रेमी मिटकर 'आत्मप्रेमी' हुआ है। वह कदाचित् देह का नाम तो भूलेगा, किन्तु आत्मा को नहीं भूलेगा। अपने ज्ञान की निर्मलता में अपना ऐसा फोटो पड़ गया है कि जो कभी भी विस्मृत नहीं होगा। जिसने ऐसा निर्णय किया है, वह राग-द्वेष का क्षय करके अल्प काल में मुक्ति प्राप्त किये बिना नहीं रहेगा। अर्थीरूप से पञ्चास्तिकाय को जानकर क्या करना? यही कि अपनी आत्मा को अनन्त शुद्ध ज्ञानस्वरूप निश्चित करना। देखो, पाँच में से जीव को पृथक् करके एक में लाये हैं, स्व में लाये हैं। पञ्चास्तिकाय का श्रवण करते समय भी जिज्ञासु जीव का Shree Kundkund-Kahan Parmarthik Trust, Mumbai.
SR No.007769
Book TitleSamyag Darshan Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKundkund Kahan Parmarthik Trust Mumbai
PublisherKundkund Kahan Parmarthik Trust Mumbai
Publication Year
Total Pages206
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size1 MB
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