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[सम्यग्दर्शन : भाग-2
जन्म-मरण के समुद्र में से आपने मुझे बाहर निकाला। भवसमुद्र में डूबते हुए मुझे आपने बचाया। संसार में जिसका कोई प्रत्युपकार नहीं है – ऐसा परम उपकार आपने मुझ पर किया है।
इस प्रकार अर्थतः अर्थीरूप से इस पञ्चास्तिकाय को जानने को आचार्यदेव ने कहा है। अर्थतः अर्थीरूप से अर्थात् भाव समझने की लगन से, वास्तविक दरकार से, उत्साह से, रुचि से, जिज्ञासा से, गरजवान होकर, याचक होकर, शोधक होकर, आत्मा का अर्थी होकर पञ्चास्तिकाय को जानना चाहिए। इस प्रकार पञ्चास्तिकाय को जानकर क्या करना चाहिए? वह अब कहते हैं -
पञ्चास्तिकायसंग्रह को अर्थतः अर्थीरूप से जानकर, इसी में कहे हुए जीवास्तिकाय के अन्तर्गत रहे हुए अपने को/निज आत्मा को स्वरूप से अत्यन्त विशुद्ध चैतन्यस्वभाववाला निश्चित करना चाहिए।
देखो, यह शास्त्र को जानने की रीत अथवा शास्त्र को जानने का तात्पर्य!
आत्मा का अर्थी जीव, पञ्चास्तिकाय को जानकर अन्तर में यह निश्चय करता है कि मैं सुविशुद्ध ज्ञान-दर्शनमय हूँ। इस प्रकार जो अन्तर्मुख होकर सुविशुद्ध ज्ञान-दर्शनरूप अपने आत्मा को निश्चय करता है, उसे ही पञ्चास्तिकाय का यथार्थ ज्ञान है।
पञ्चास्तिकाय को जानकर क्या प्राप्त करना है? शुद्ध जीवास्तिकाय ही प्राप्त करने योग्य है। इस जगत् में पञ्चास्तिकाय के समूहरूप अनन्त द्रव्य हैं, उनमें से अनन्त अचेतनद्रव्य तो मुझ से भिन्न विजातीय हैं, वह मैं नहीं हूँ और चैतन्यस्वभाववाले
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