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सम्यग्दर्शन : भाग-2]
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याद नहीं करता; शरीर की क्रिया या पुण्य-पाप की बात भी नहीं पूछता; अन्दर में गुण-गुणीभेद का विकल्प उठता है, वह भी उसे खटकता है; इसलिए उससे आगे बढ़कर शुद्ध आत्मा का निर्विकल्प अनुभव करने के लिये उसे यह प्रश्न उत्पन्न हुआ है। छठवीं गाथा में श्री गुरुजी से महाविनय और पात्रतापूर्वक ज्ञायकस्वरूप का श्रवण करके, उसका अनुभव करने के लिये अन्तरमंथन करते -करते 'मैं ज्ञायक हूँ' – ऐसा लक्ष्य में लेने लगा, परन्तु उसमें गुण-गुणी के भेद का विकल्प उत्पन्न हुआ। वहाँ अपनी शुद्धात्मा की रुचि के जोर से शिष्य ने इतना तो निर्णय कर लिया कि अभी जो यह गुण-गुणी के भेद का विकल्प उठता है, वह भी शुद्धात्मा के अनुभव को रोकनेवाला है, यह विकल्प है, वह अशुद्धता है; इसलिए वह भी निषेध करनेयोग्य है। शिष्य को रुचि और ज्ञान में इतनी तो सूक्ष्मता हो गयी है कि गुण-गुणी भेद के विकल्प से भी शुद्ध आत्मा का अनुभव पार है-ऐसा निर्णय करके उस गुणगुणीभेद के विकल्प से भी पृथक् पड़ना चाहता है; गुण-गुणी भेद के विकल्प से भी आगे कोई अभेदवस्तु है, उसे लक्ष्य में लेकर उसका अनुभव करने के लिये अन्तर में गहरे-गहरे उतरता जाता है और यह बात श्रीगुरु के मुख से सुनने के लिये विनय से पूछता है कि प्रभो! ज्ञान, दर्शन, चारित्र के भेद से आत्मा को लक्ष्य में लेने से गुण-गुणी भेद का विकल्प उठता है और अशुद्धता का अनुभव होता है तो क्या करना?
श्री आचार्य भगवान भी शिष्य की अत्यन्त निकट पात्रता देखकर उसे शुद्ध आत्मा का स्वरूप समझाते हैं; शिष्य के प्रश्न का उत्तर देते हुए सातवीं गाथा में कहते हैं कि इस भगवान ज्ञायक एक
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