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[सम्यग्दर्शन : भाग-2
आत्मा में दर्शन-ज्ञान-चारित्र – ऐसे गुणभेद व्यवहार से ही कहे गये हैं; परमार्थ से तो भगवान आत्मा एक अभेद है। इसलिए एक अभेद ज्ञायक आत्मा' को लक्ष्य में लेकर अनुभव करने पर 'मैं ज्ञान हूँ' इत्यादि गुण-गुणी भेद के विकल्पों का भी निषेध हो जाता है और शुद्ध आत्मा का निर्विकल्प अनुभव होता है।
(समयसार गाथा-७ के प्रवचन में से)
प्रयत्न करके आत्मा को देहादि से भिन्न जान!
अरे! तूने दुनिया तो देखी, परन्तु देखनेवाले स्वयं को नहीं देखा! पर की प्रसिद्धि की कि 'यह है' परन्तु अपनी प्रसिद्धि नहीं की कि 'यह जाननेवाला मैं हूँ।' जाननेवाले को जाने बिना आनन्द नहीं होता। अहा! चैतन्यतत्त्व ऐसे आनन्द से भरपूर है कि जिसके स्मरणमात्र से ही शान्ति मिलती है। तब उसके सीधे अनुभव की तो बात ही क्या है!
तेरा आत्मा अतीन्द्रिय आनन्द से भरपूर भगवान है, मूर्त द्रव्यों से भिन्न है, राग से पृथक् है; तू एक बार मूर्त द्रव्यों का पड़ोसी हो जा। पड़ोसी अर्थात् भिन्न; चैतन्यप्रकाश की अपेक्षा से राग भी अचेतन है, वह भी चैतन्य के साथ एकमेक नहीं; अपित भिन्न है। शरीर और राग - इन सबको एक ओर रखकर, इस ओर सबसे भिन्न अपने चैतन्य को देख। अरे! आत्मा के अनुभव का ऐसा सरस योग और भेदज्ञान का ऐसा उत्तम उपदेश! यह सब प्राप्त करके, अब एक बार आत्मा को अनुभव में ले! प्रयत्न करके आत्मा को देहादि से भिन्न जान!
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