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[सम्यग्दर्शन : भाग-2
शुद्धात्मा के निर्विकल्प अनुभव के लिये....
लालायित शिष्य
श्री समयसार की पहली ही गाथा में आचार्यदेव ने आत्मा में सिद्धत्व की स्थापना की है कि मैं सिद्ध और तू भी सिद्ध। सिद्ध भगवान के आत्मा में और इस आत्मा में स्वभाव से कोई अन्तर नहीं है। इस बात का बहुत अपूर्वरुचि से स्वीकार करके शिष्य को स्वयं का शुद्धात्मा समझने की लालसा हुई, इससे उस शुद्धात्मा का स्वरूप जानने की जिज्ञासा से उसने प्रश्न पूछा है-हे नाथ! ऐसा शुद्धात्मा कौन है कि जिसका स्वरूप जानना चाहिए? हे प्रभो! जिस शुद्ध आत्मा को जाने बिना मैं अभी तक भटका हूँ, उस शुद्धात्मा का स्वरूप क्या है ? वह कृपा करके मुझे बताओ। ___ - ऐसे शिष्य को शुद्ध आत्मा का स्वरूप समझाते हुए श्री
आचार्य प्रभु ने छठवीं गाथा में ज्ञायकभाव' का वर्णन किया। वहाँ विकार और पर्यायभेद का तो निषेध किया परन्तु अभी गुणभेदरूप व्यवहार के निषेध की बात वहाँ आयी नहीं थी; इसलिए सातवीं गाथा की शुरुआत में श्री आचार्यदेव ने शिष्य के मुख में प्रश्न रखा है कि प्रभो! दर्शन-ज्ञान-चारित्र के भेद से भी इस आत्मा को अशुद्धपना आता है, अर्थात् 'आत्मा ज्ञान है-दर्शन है-चारित्र है' ऐसे लक्ष्य में लेने से भी भगवान शुद्ध आत्मा का अनुभव नहीं होता, मात्र विकल्प की उत्पत्ति होकर अशुद्धता का अनुभव होता है – तो उसका क्या करना? देखो, शिष्य के प्रश्न में सूक्ष्मता! किसी बाहर की बात को तो
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