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सम्यग्दर्शन : भाग-2]
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शुद्धपर्याय प्रगट हुई, वह उनका कार्यपरमात्मा है; इसी प्रकार इस आत्मा का ध्रुवस्वभाव है, वह अपना कारणपरमात्मा है और उसका आश्रय करने पर केवलज्ञानदशा प्रगट हो जाये, वह अपना कार्यपरमात्मा है - इस प्रकार अपना शुद्ध कारणपरमात्मा ही परमात्मदशा का परम कारण है; इसके अतिरिक्त बाहर के किसी कारण से परमात्मदशा प्रगट नहीं होती।
जगत में सिद्ध भगवन्त अनादि से हैं और सिद्धि का उपाय भी अनादि से है। छह महीने और आठ समय में छह सौ आठ जीव मोक्ष में जाते हैं - ऐसा क्रम निरन्तर चला ही करता है। अभी इस भरतक्षेत्र में मोक्ष नहीं है परन्तु महाविदेह में से छह महीने और आठ समय में छह सौ आठ जीव मोक्ष में जाते हैं । वे अपना शुद्ध कारणपरमात्मा को श्रद्धा-ज्ञान-चारित्ररूप अभेदरत्नत्रय परिणति से आराधकर ही सिद्ध होते हैं। ___ निज शुद्ध आत्मा के अवलम्बन से जो शुद्धरत्नत्रयपरिणति प्रगट हुई, उसके द्वारा कारणपरमात्मा की भक्ति कर-करके पुराण पुरुष, सिद्धि को प्राप्त हुए हैं, वर्तमान में भी यही उपाय है और भविष्य में भी सिद्धि का यही उपाय है। निमित्त से, राग से, या भेदरत्नत्रय से भी तीन काल में मुक्ति नहीं होती। चैतन्यस्वरूप की भावना करते-करते उसमें रागरहित लीनता हो जाये, उसका नाम अनुपचार रत्नत्रय है और उससे ही मुक्ति होती है। __ तीर्थङ्कर नामकर्म के कारणरूप जो सोलहकारणभावना का भाव है, वह भी वास्तव में आस्रव है, धर्म नहीं। प्रथम तो दर्शनशुद्धि के बिना अज्ञानी को सोलहकारणभावना ही यथार्थ नहीं होती,
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