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[सम्यग्दर्शन : भाग-2
सतसमागम से स्वभाव का बहमान इत्यादि का अभ्यास करना, वह व्यवहार है। __यहाँ रत्नत्रयपरिणति द्वारा शुद्ध कारणपरमात्मा की आराधना करने को कहा है। कारणपरमात्मा अर्थात् क्या? त्रिकाली शक्ति से परिपूर्ण द्रव्य, वह कारणपरमात्मा है और वर्तमान केवलज्ञानादि पूर्ण पर्याय प्रगट हो, वह कार्यपरमात्मा है। वह पूर्ण कार्य प्रगट होने के कारणरूप सामर्थ्य, द्रव्य में त्रिकाल है। एक समय की पर्याय को गौण करके जो पूर्ण सामर्थ्यरूप वर्तमान तत्त्व है, उसे ही कारणपरमात्मा कहा जाता है। सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्ररूप निर्विकल्प पर्याय या परमात्मपर्याय प्रगट हो, वह कार्य है। वह कार्य, ध्रुव आत्मद्रव्य में से आता है; इसलिए उस ध्रुव द्रव्यस्वभाव को कारणपरमात्मा कहा है; वह सदा काल एकरूप परिपूर्ण है। ___ मोक्षमार्ग की पर्याय को मोक्ष का कारण कहना, वह व्यवहार से है। वस्तुतः कहीं मोक्षमार्ग की पर्याय में से मोक्षपर्याय नहीं आती; मोक्षपर्याय तो आत्मद्रव्य में से आती है; इसलिए ध्रुव आत्मा ही मोक्ष का निश्चय कारण है। उसे ही नियमसार में कारणपरमात्मा कहकर खूब गाया है। सम्यग्दर्शन से लेकर सिद्धदशा तक की सभी पर्यायें उस ध्रुव कारणपरमात्मा के अवलम्बन से प्रगट होती है। उसकी परम महिमा करके, उसका अवलम्बन लेना ही परमार्थ भक्ति है और वही मोक्षमार्ग है। ___ जो शुद्ध कारणपरमात्मा' कहलाता है, वह सिद्धभगवान की ही बात नहीं परन्तु सभी आत्माएँ वैसे हैं । सिद्धभगवान का त्रिकाली द्रव्य, वह उनका कारणपरमात्मा है तथा उसके आश्रय से उन्हें जो
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