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सम्यग्दर्शन : भाग-2 ]
अब, निश्चय भक्ति के साथ धर्मी को व्यवहारभक्ति भी कैसी होती है - वह बतलाते हैं।
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जो मुक्तिगत हैं उन पुरुष की भक्ति जो गुणभेद से, करता, वही व्यवहार से निर्वाणभक्ति वेद रे ॥ १३५ ॥
सिद्ध जैसे अपने शुद्धात्मा की अभेदभक्ति, वह निश्चयभक्ति है और अपने से भिन्न ऐसे सिद्ध परमात्माओं की भक्ति, वह व्यवहारभक्ति है ।
जो जीव, मोक्षगत पुरुषों का गुणभेद जानकर, उनकी भी परमभक्ति करता है, उस जीव को व्यवहारनय से निर्वाणभक्ति है । जिसे शुद्ध चैतन्यस्वभाव का भान है परन्तु अभी पूर्ण वीतरागता नहीं हुई, वह जीव, शुभराग के समय सिद्धभगवान के गुणों को लक्ष्य में लेकर भक्ति करता है । अपना आत्मा सिद्ध जैसा है - ऐसे भानपूर्वक उसमें लीनता, वह निश्चयभक्ति है और वहाँ सिद्धभगवान की भक्ति का भाव, वह व्यवहारभक्ति है ।
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मोक्ष, अर्थात् आत्मा की परिपूर्ण ज्ञान - आनन्दमय निर्विकारी पर्याय; और संसार, अर्थात् एक समयमात्र का विकारी भाव । स्वभाव की श्रद्धा, ज्ञान, रमणतारूप शुद्धरत्नत्रय से जो मुक्ति को प्राप्त हुए - ऐसे मोक्षगत सिद्धभगवन्तों के गुण को पहचानकर उनकी भक्ति भी श्रावक और श्रमण करते हैं । श्रावक और श्रमण स्वयं शुद्धरत्नत्रय के आराधक हैं; इसलिए पूर्व में शुद्धरत्नत्रय को आराधकर जो मुक्ति प्राप्त हुए, उनका भी आदर - बहुमान करते हैं । यहाँ सिद्धभगवान की बात की है, उसके साथ अरहन्त भगवान इत्यादि की बात भी समझ लेना चाहिए।
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