________________
www.vitragvani.com
134]
[सम्यग्दर्शन : भाग-2
वास्तविक भक्ति है। मैं एक समय में परिपूर्ण परमात्मा हूँ - ऐसी शक्ति का अन्तर परिणमन हुआ, उसमें धर्मी को एक समय भी विरह नहीं पड़ता; बाहर में विषयादि के अशुभराग के समय भी वैसी दृष्टि निरन्तर रहती है। ऐसी दृष्टिवाला जीव, रत्नत्रय का भक्त है। यदि एक क्षण भी ऐसी भक्ति करे तो अल्पकाल में मुक्ति हुए बिना नहीं रहे।
जो जीव, चैतन्यमहिमा में लीन होकर शुद्धरत्नत्रय की अतुल भक्ति करता है, वह समस्त विषय-कषाय से विमुक्त चित्तवाला जीव, भक्त है; उसके अन्दर की रत्नत्रय की भक्ति भव-भय का नाश करनेवाली है। जिसने चिदानन्द परमात्मतत्त्व की भक्ति की, उसकी रुचि करके आराधना की, उसे विषयों की या विकार की रुचि रहती ही नहीं। परिणति जहाँ स्वभाव में अन्तर्मुखरूप से परिणमित हो गयी, वहाँ बाहर के द्रव्य, क्षेत्र आदि से विमुखता हो गयी - इस प्रकार विषय-कषाय से विमुक्त चित्तवाला जो जीव, शुद्धरत्नत्रय की भक्ति करता है, वह जीव निरन्तर भक्त है... भक्त है, फिर भले वह श्रावक हो या मुनि हो।
श्री मुनिराज प्रमोद प्रसिद्ध करते है कि अहो! चिदानन्द परमात्मतत्त्व की श्रद्धा करके जो उसकी आराधना करता है, वह जीव निरन्तर भक्त है-भक्त है; उसे हिलते-चलते, खाते-पीते निरन्तर चैतन्य का भजन वर्तता है। श्रावक को कदाचित् लड़ाई इत्यादि के जरा अशुभभाव आ जाये तो उस समय भी दृष्टि में से शुद्ध चैतन्यतत्त्व का अवलम्बन उसे छूटता नहीं है; इसलिए कहा कि वह निरन्तर भक्त है, भक्त है।
Shree Kundkund-Kahan Parmarthik Trust, Mumbai.