________________
www.vitragvani.com
सम्यग्दर्शन : भाग-2]
[133
स्वभाव के आश्रय की मुख्यता एक समय भी टूटती नहीं। स्वभाव का जितना अवलम्बन वर्तता है, उतनी रत्नत्रय की भक्ति निरन्तर वर्तती है। सम्यग्दृष्टि धर्मात्मा को भी निश्चयस्वभाव की मुख्यता, क्षणमात्र कभी छूटती नहीं; इसलिए उसे निरन्तर सम्यग्दर्शनादि की भक्ति है। मुनिराज कहते हैं कि अहो! शुद्धरत्नत्रय की भक्ति करनेवाले वे श्रावक तथा श्रमण भक्त हैं... भक्त हैं। दो बार भक्त हैं - ऐसा कहकर अपना प्रमोद प्रगट किया है। __भगवान! तेरा आत्मा ही परमात्मा है। परमात्मपद तेरी आत्मशक्ति में भरा है। उसकी श्रद्धा-ज्ञान करके, उसमें लीन हो, वही परमभक्ति है। ऐसी निश्चयभक्ति के भानसहित सम्यग्दृष्टि श्रावक भी तीर्थङ्कर भगवान की भक्ति करते हैं। एकावतारी इन्द्र और इन्द्राणियाँ भी भगवान के समीप भक्ति से घनघन करते हुए बालक की तरह नाच उठते हैं, परन्तु उस समय भी अन्दर में शुद्ध ज्ञानानन्दस्वभाव की दृष्टि छूटती नहीं है। नन्दीश्वरद्वीप में शाश्वत् जिनबिम्ब हैं, वहाँ जाकर इन्द्र इत्यादि समकिती भी भक्ति से नाच उठते हैं, वह व्यवहारभक्ति है और अन्दर में शुद्धस्वभाव की दृष्टि पड़ी है, वह निश्चयभक्ति है।
लोक में भी कहते हैं कि शक्तिमान को भजो। ध्रुव कारण -परमात्मा ही परम शक्तिमान है, परमात्मपद देने की शक्ति उसमें ही पड़ी है; उसके अतिरिक्त किसी पर में-निमित्त में, राग में या पर्याय में ऐसी ताकत नहीं है कि वह परमात्मपद को दे; इसलिए अपने ध्रुव चिदानन्द कारणपरमात्मा को ही ध्येयरूप करके उस पर दृष्टि की नजर लगाने का नाम शक्तिमान का भजन है और वही
Shree Kundkund-Kahan Parmarthik Trust, Mumbai.