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________________ www.vitragvani.com सम्यग्दर्शन : भाग-2] [127 धर्म की बढ़ती धारा (गुणस्थानवृद्धि अर्थात् धर्मवृद्धि की विधि) अभेद आत्मस्वभाव के आश्रय से ही वीतरागी धर्म प्रगट होता है, उसके आश्रय से ही धर्म बढ़ता है और उसके आश्रय से ही पूर्णता होती है। इसके अतिरिक्त शरीरादि की किसी क्रिया से या व्रत इत्यादि के शुभपरिणाम से धर्म की शुरुआत नहीं होती, उससे धर्म की वृद्धि भी नहीं होती और पूर्णता भी नहीं होती। धर्म की शुरुआत से लेकर पूर्णता तक अपने शुद्ध आत्मद्रव्य के अतिरिक्त दूसरे किसी का अवलम्बन नहीं है। बीच में साधकदशा में पर के अवलम्बन का भाव आ जाये परन्तु वह धर्म नहीं है - ऐसा धर्मी समझता है। जब तक निमित्त पर, राग पर, या भेद पर दृष्टि रहती है, तब तक आत्मा का सम्यग्दर्शन नहीं होता। जब निमित्त, राग और भेद इन तीनों की उपेक्षा करके अभेद आत्मस्वरूप के सन्मुख हो, तभी निर्विकल्प सम्यग्दर्शन इत्यादि प्रगट होते हैं। भेद की दृष्टि से निर्विकल्पदशा नहीं होती परन्तु राग होता है; इसलिए जब तक रागादि नहीं मिटते, तब तक भेद को गौण करके अभेद आत्मस्वरूप का निर्विकल्प अनुभव कराया गया है। अभेद की मुख्यता और भेद की गौणता करके स्वभाव की ओर ढलने से शुद्ध आत्मा की प्राप्ति होती है । गुणस्थान की वृद्धि अभेदस्वभाव के आश्रय से ही होती है। यदि दृष्टि में से एक क्षण भी अभेदस्वभाव का आश्रय छूट जाये तो धर्मदशा टिकती नहीं है। ___ पहले, चौथा गुणस्थान अभेद निर्विकल्प अनुभव से ही प्रगट होता है; तत्पश्चात् चौथा पलटकर पाँचवाँ गुणस्थान भी अभेद - Shree Kundkund-Kahan Parmarthik Trust, Mumbai.
SR No.007769
Book TitleSamyag Darshan Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKundkund Kahan Parmarthik Trust Mumbai
PublisherKundkund Kahan Parmarthik Trust Mumbai
Publication Year
Total Pages206
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size1 MB
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