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[सम्यग्दर्शन : भाग-2
'मैं' में 'तू' नहीं..... एक में अनेकता नहीं। शुद्ध में अशुद्धता नहीं। सदा अरूपी में कभी रूपीपना नहीं... ज्ञानदर्शनमय में जरा भी अचेतनपना नहीं।।
कुछ अन्य जरा भी-परमाणुमात्र भी मेरा नहीं, अर्थात् निजस्वभाव से ही मेरी पूर्णता है। एक ओर स्वयं चैतन्य परम-आत्मा और दूसरी ओर अचेतन परम-अणु। ___ अहो! ऐसे परमात्मा को पहचान कर उसकी भावना करने योग्य है।
अन्य कोई शरण नहीं है । देखो, यह जीव करोड़ों रुपये की आमदनीवाला सेठ तो अनन्त बार हुआ है और अनन्त बार ही घर-घर जाकर भीख माँगकर पेट भरनेवाला भिखारी भी हुआ है; आत्मा के भान बिना पुण्य करके बड़ा देव भी अनन्त बार हुआ है और पाप करके नारकी भी अनन्त बार हुआ है परन्तु अभी भी इसे भव-भ्रमण से थकान नहीं लगती है। आचार्यदेव कहते हैं कि भाई! 'अब मुझे भव नहीं चाहिए' - इस प्रकार यदि तुझे भव-भ्रमण से थकान लगी हो तो आत्मा की प्रीति करके उसका स्वरूप समझ! इसके अतिरिक्त अन्य कोई शरण नहीं है। (पूज्य गुरुदेवश्री कानजीस्वामी)
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