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[सम्यग्दर्शन : भाग-2
-स्वभाव के ही विशेष अनुभव से प्रगट होता है। किसी व्रतादि के शुभपरिणाम से पाँचवाँ गुणस्थान प्रगट नहीं हो जाता, परन्तु अभेदस्वभाव के निर्विकल्प अनुभव से ही चौथा पलटकर पाँचवाँ गुणस्थान प्रगट हो जाता है। तत्पश्चात् आगे बढ़ने पर सातवाँ, आठवाँ, नौवाँ, दसवाँ, बारहवाँ इत्यादि गुणस्थान भी ऐसे ही अभेद अनुभव से प्रगट होते हैं। इस प्रकार अभेदस्वभाव के आश्रय से ही धर्म की धारा चलती जाती है। धर्म के छोटे में छोटे अंश से लेकर पूर्णता तक के जितने प्रकार पड़ें, उन सबमें अभेदस्वभाव काएक का ही अवलम्बन है। इसके अतिरिक्त भेद का-विकार का या निमित्तों का अवलम्बन, धर्म में कभी है ही नहीं।
सबसे पहले आत्मस्वभाव की जैसी अचिन्त्य महिमा है, वैसी पहचानकर, उस स्वभाव के ही अवलम्बन से निर्विकल्प अनुभव से सम्यग्दर्शनरूप चौथा गुणस्थान प्रगट होता है। वहाँ से धर्म की अपूर्व शुरुआत होती है, अर्थात् साधकभाव शुरु होता है। तत्पश्चात् आगे-आगे की साधकदशा भी उस अभेदस्वभाव के ही निर्विकल्प अनुभव से प्रगट होती है। चौथे गुणस्थान में व्रतादि के बहुत शुभ परिणाम करे, इससे पाँचवाँ गुणस्थान प्रगट हो जाये - ऐसा नहीं है परन्तु आत्मा के अभेदस्वभाव का उग्र अवलम्बन लेने से ही गुणस्थान की वृद्धि होती है। गुणस्थान की वृद्धि कहो, धर्म की वृद्धि कहो, साधकभाव की वृद्धि कहो या मोक्षमार्ग कहो-उसकी विधि एक ही है कि अखण्ड आत्मस्वभाव का अवलम्बन करना। इसलिए शुरुआत से लेकर जब तक रागादि मिटकर केवलज्ञान न हो, तब तक उस अभेदस्वभाव को मुख्य करके उसके ही निर्विकल्प अनुभव का उपदेश श्रीगुरुओं ने किया है।
(श्री समयसार गाथा ७, भावार्थ के प्रवचन में से)
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