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[सम्यग्दर्शन : भाग-2
उसे बोने पर वह उगता नहीं है; इसी प्रकार चैतन्यबिम्ब आत्मा में सुखस्वभाव भरा है, उसकी श्रद्धा और एकाग्रता के बल से मोक्षदशा में वह सुख प्रगट होता है और फिर उस आत्मा का अवतार अर्थात् जन्म-मरण नहीं होता। ऐसी मोक्षदशा प्रगट होने का अवसर इस मनुष्यपने में ही है।
पहले तो मनुष्यदेह में सत्समागमपूर्वक आत्मा की रुचि से आत्मा की पहिचान करे कि मैं शुद्ध हूँ, पवित्र हूँ, ज्ञान-आनन्द से भरपूर हूँ; विकारभाव होते हैं, वह दुःख है, वह मेरा स्वरूप नहीं है; किसी भी संयोग से मुझे सुख-दु:ख नहीं है। इस प्रकार भान करके फिर आत्मा में स्थिरता करने से राग-द्वेष का अभाव होकर मोक्षदशा का सुख प्रगट होता है । मोक्ष होने की योग्यता इस आत्मा में ही भरी है। शक्तिरूप से यह आत्मा ही परमात्मा है। अप्पा सो परमप्पा' अर्थात् आत्मा ही स्वभाव से परमात्मा है। उसका भान करके आत्मा स्वयं ही प्रगटरूप परमात्मा हो जाता है। यह सब इस मनुष्यभव में ही हो सकता है और इसीलिए ज्ञानियों ने मानवदेह को उत्तम कहा है।
प्रत्येक आत्मा, परमात्मा के समान सच्चिदानन्द की मूर्ति है। बाहर के देह में अन्तर है तथा वर्तमान अवस्था में अन्तर है परन्तु स्वभाव से तो सभी आत्माएँ प्रभु हैं। अपूर्णता कोई आत्मा का वास्तविक स्वरूप नहीं है। जिस प्रकार स्वर्ण के सौ टुकड़ों पर अलग-अलग प्रकार के वस्त्र लपेटे हों, परन्तु अन्दर सोना तो सबमें एक समान ही है। इसी प्रकार प्रत्येक आत्मा भिन्न-भिन्न चैतन्यधातु का पिण्ड है, बाह्य में छोटा-बड़ा शरीर और वर्तमान क्षणिक अवस्था में अपूर्णता है, उसे लक्ष्य में नहीं लेकर त्रिकाली
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