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सम्यग्दर्शन : भाग-2]
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नहीं होने पर भी रोग होता है; इसलिए आत्मा की इच्छा पर में काम नहीं आती। आत्मा पर से भिन्न है; इसलिए आत्मा किसी दूसरे का भला अथवा बुरा नहीं कर सकता, फिर भी पर को अपना मानकर उसकी ममता करता है, इसी कारण जीव दु:खी है।
देखो, श्रीमद् राजचन्द्र सोलह वर्ष की युवा अवस्था में तो संसार का दु:खमय वर्णन करते हैं । यह संसार बहुत दु:ख से भरा है। कोई बड़ा राजा हो या सेठ हो, इससे उसे सुखी नहीं कहा गया है। जिन्हें शरीर से भिन्न चैतन्यमूर्ति आत्मा का भान नहीं है और पर की ममता करते हैं, वे सभी जीव इस संसार में महादु:खी हैं। राज्य, लक्ष्मी, स्त्री, पुत्र, मान-प्रतिष्ठा इत्यादि होने पर भी पर की ममता के कारण यह जीव दु:खी ही है। रोग अथवा निर्धनता का दु:ख जीव को नहीं है परन्तु अन्तर में अपना आत्मा सुख से भरपूर है, उसकी महिमा नहीं करके, पर की महिमा करके ममता करता है; इसीलिए दुःख है। तात्पर्य यह है कि जीव का ममत्वभाव ही संसार है और ममत्वभाव का ही दुःख है। परवस्तु में सुख अथवा दु:ख नहीं है। जीव परभव में जाए, तब शरीर आदि परवस्तुएँ तो यहीं पड़ी रह जाती हैं, वे जीव के साथ नहीं जातीं; जीव अपने ममत्वभाव को साथ लेकर जाता है। वह ममत्वभाव ही संसार है।
ज्ञानी-सन्त आत्मा को पहचानकर इस दुःखमय संसार से तिरकर पार होने का प्रयोजन साधते हैं और मोक्षदशा प्रगट करते हैं। आत्मा का परिपूर्ण सुख मोक्षदशा में प्रगट होता है। आत्मा के स्वभाव में सुख भरा है, उसे पहचानकर, उसमें एकाग्र होने से मोक्षदशा में वह सुख परिपूर्ण प्रगट होता है। जिस प्रकार चने में स्वाद भरा है, इसलिए उसे सेकने से वह स्वाद आता है और फिर
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