________________
www.vitragvani.com
सम्यग्दर्शन : भाग-2]
[99
प्रारम्भ प्रगट हुआ है। यदि उपादान में अपूर्वता प्रारम्भ नहीं हुई हो तो निमित्त की अपूर्वता को स्वीकार कौन करेगा? निमित्त-नैमित्तिक के मेलपूर्वक एकत्वस्वभाव का श्रवण जीव ने पूर्व में कभी नहीं किया है। निमित्त-नैमित्तिकभाव के मेलवाला श्रवण अपूर्व है, उसमें जीव का नैमित्तिकभाव भी अपूर्व है और उस अपूर्वभाव का निमित्त होने से वह निमित्त भी अपूर्व है।
[समयसार, गाथा 4 के प्रवचन से ]
की
'आकाश-पाताल भले एक हो जाएँ।'
'आकाश-पाताल भले एक हो जाएँ।' यद्यपि वे कभी एक होते नहीं है परन्तु ऐसा कहकर यह कहना है कि विपरीतता में पड़े हुए मनुष्य, पण्डित नाम धारण करनेवाले, त्यागी नाम धारण करनेवाले, साधु नाम धारण करनेवाले-सब तेरा विरोध करें और कहें कि 'हम यह जो व्रत, तप और भक्ति करते हैं, वह क्या धर्म नहीं है?' - इस प्रकार सारी दुनिया भले बदल जाए, परन्तु भाई! अन्तर में अतीन्द्रिय आनन्द का सागर है, वह शरीर से, दया-दान के विकल्प से और उन्हें जाननेवाली एक समय की पर्याय से भी भिन्न है, उस अपने ध्येय को तू चूकना नहीं। भीतर जहाँ आनन्द भरा है, उस आनन्द के नाथ आत्मा के संस्कार डालकर सम्यग्दर्शन प्राप्त करने का प्रयत्न कर; उसके अतिरिक्त अन्य कोई साधन नहीं होगा।
(पूज्य गुरुदेवश्री कानजीस्वामी)
Shree Kundkund-Kahan Parmarthik Trust, Mumbai.