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________________ www.vitragvani.com 98] [सम्यग्दर्शन : भाग-2 यदि एक बार भी आत्मा के शुद्धस्वभाव की बात प्रीतिपूर्वक सुनें तो अल्प काल में ही उसकी मुक्ति हुए बिना नहीं रहे। __जीव ने कभी सच्चे निमित्त के समक्ष अपने एकत्वस्वभाव का श्रवण ही नहीं किया है, सच्चे लक्ष्यपूर्वक उसका परिचय नहीं किया है और विकल्प तोड़कर अनुभव नहीं किया है। यहाँ तो ऐसे ही श्रवण को श्रवण' के रूप में लिया गया है कि जिस श्रवण के फल में यथार्थ आत्मस्वरूप का परिचय और अनुभव हो; परिचय और अनुभव बिना श्रवण, वह वास्तविक श्रवण नहीं है। समयसार सुननेवाला शिष्य भी ऐसा सुपात्र है कि समयसार में बतलाये गये आत्मा का एकत्वस्वरूप सुनने में उसे उत्साह आता है और उसमें अपूर्वता भासित होती है। वर्तमान में जिस भाव से मैं श्रवण करता हूँ - ऐसे भाव से मैंने पूर्व में कभी सुना ही नहीं। इस प्रकार वह अपने भाव में अपूर्वता लाकर सुनता है; इसलिए निमित्त में भी अपूर्वता का आरोप आता है। पूर्व में शुद्धात्मा का श्रवण-परिचय और अनुभव नहीं किया था परन्तु अब अपूर्व रुचि प्रगट करके आत्मा का श्रवण-मन्थन और स्वानुभव करने के लिए वह शिष्य तैयार हुआ है। यहाँ आचार्यदेव पूर्व के श्रवण को निमित्तरूप स्वीकार नहीं करते हैं क्योंकि उस समय जीव के भाव में नैमित्तिकभाव नहीं था; नैमित्तिकभाव प्रगट हुए बिना निमित्त किसका? 'शुद्धात्मा की बात पहले कभी नहीं सुनी' - ऐसा कहकर श्री आचार्यदेव एकत्वस्वभाव के श्रवण को अपूर्वरूप स्वीकार करते हैं। निमित्त की अपूर्वता है, वह यह प्रसिद्ध करती है कि यहाँ नैमित्तिकभाव में भी अपूर्वता का Shree Kundkund-Kahan Parmarthik Trust, Mumbai.
SR No.007769
Book TitleSamyag Darshan Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKundkund Kahan Parmarthik Trust Mumbai
PublisherKundkund Kahan Parmarthik Trust Mumbai
Publication Year
Total Pages206
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size1 MB
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