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सम्यग्दर्शन : भाग-2 ]
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ले आ! यदि उसका पुत्र, शक्कर के बदले अफीम ले आवे तो उसने अपने पिता की बात सुनी नहीं कहा जाता। इसी प्रकार सर्वज्ञ भगवान और सन्त, शुद्धात्मा का स्वरूप बतलाकर, उसका अनुभव करने के लिये कहते हैं । जो जीव, शुद्धात्मा का तो अनुभव नहीं करता और विकार की रुचि करके उसका ही अनुभव करता है तो उस जीव ने वास्तव में शुद्धात्मा की बात सुनी ही नहीं है ।
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भगवान की दिव्यध्वनि में तो एक साथ निश्चय-व्यवहार इत्यादि सब वर्णन आता है । उसे सुनते ही ' व्यवहार है न ! राग है न! निमित्त है न!' इस प्रकार जो जीव, व्यवहार पर वजन देता है किन्तु ' आत्मा का स्वभाव शुद्ध ज्ञायक है' - इस प्रकार शुद्धात्मा के अस्तित्व पर वजन नहीं देता अर्थात् अपनी रुचि को शुद्धात्मा की ओर नहीं लगाता, उस जीव ने भगवान की वाणी नहीं सुनी, क्योंकि भगवान की वाणी सुनने से पूर्व उसका जो भाव था, वैसे ही भाव का भगवान की वाणी सुनने के बाद भी वह सेवन कर रहा है।
जितने जीव, शुद्ध आत्मा की रुचि की ओर नहीं ढलकर, अशुद्ध आत्मा की अर्थात् व्यवहार की, राग की, निमित्त की, पराश्रय की रुचि करते हैं, उन सभी जीवों ने काम-भोग-बन्धन की कथा ही सुनी है किन्तु शुद्धात्मा की बात नहीं सुनी है। जैसा कार्य ये जीव कर रहे हैं, वैसा ही कार्य नित्य-निगोद के जीव भी कर ही रहे हैं। अनादि से वाणी नहीं सुनी थी, तब जो दशा थी, उसमें वाणी सुनने के बाद कुछ अन्तर नहीं पड़ा और वैसी ही दशा रही तो उसने आत्मस्वभाव की बात सुनी है ऐसा ज्ञानी
स्वीकार नहीं करते हैं ।
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