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[सम्यग्दर्शन : भाग-2
ऐसे अपूर्व श्रवण को स्वीकार किया है कि जिसका श्रवण किया, उसकी रुचि और अनुभव भी करे ही।
कोई जीव भले ही भगवान की सभा में दिव्यध्वनि सुनता हो परन्तु यदि अन्तर में व्यवहार के पक्ष का आशय रखे तो उसने वास्तव में शुद्धात्मा का ग्रहण नहीं किया है, उसके लिये तो वह विकथा का ही श्रवण है । मात्र आत्मा के शब्द कान में पड़ना, वह कहीं शुद्धात्मा का श्रवण नहीं है परन्तु श्रवण, परिचय और अनुभव - इन तीनों की एकता अर्थात् जैसा शुद्धात्मा सुना है, वैसा ही परिचय में-रुचि में लेकर उसका अनुभव करे, इसी का नाम शुद्धात्मा का श्रवण है। जीव ने पूर्व में ऐसा श्रवण कभी नहीं किया है; इसलिए अब तू शुद्धात्मा की रुचि के अपूर्वभाव से इस समयसार का श्रवण करना - ऐसा आचार्यदेव कहते हैं।
धर्मकथा अथवा विकथा, मात्र शब्दों में नहीं है, अपितु भाव पर उसका आधार है। जहाँ युद्ध अथवा शरीर के रूप इत्यादि का वर्णन आवे, वहाँ उसे सुननेवाला यदि अपने में वैराग्यभाव का पोषण करता हो तो उसके लिए वह वैराग्यकथा है और उन्हीं शब्दों को सुनकर जो जीव अपने विषय-कषाय के भावों का पोषण करता हो, उसके लिए वह विकथा है। इसी प्रकार यहाँ जो जीव, शुद्धात्मा की रुचि करे, उसी ने शुद्धात्मा की बात सुनी - ऐसा कहा जाता है। शुद्धात्मा के शब्द कान में पड़ने पर भी यदि विकार की रुचि का परित्याग नहीं करे तो उसने शुद्धात्मा की बात सुनी ही नहीं है। तात्पर्य यह है कि निमित्त पर कुछ भी वजन नहीं रहा, अपितु अपने उपादान में रुचि के भाव पर ही वजन आया। जैसे, कोई पिता अपने पुत्र से कहे कि जा, बाजार से शक्कर
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