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सम्यग्दर्शन : भाग-2]
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_अरे भाई! दो घड़ी-चार घड़ी तू तेरे आत्मा का विचार तो कर! तुझे तेरी कीमत नहीं और तू दूसरे की कीमत करता है ! यह तुझे शोभा नहीं देता। बाहर की चीजें तेरी नहीं है, वे तेरे साथ नहीं आती; इसलिए उनसे भिन्न आत्मा है, उसकी प्रीति कर। धर्मी जीव को आत्मा की प्रीति और ज्ञान करते-करते बीच में अणिमा -महिमा इत्यादि ऋद्धि सहज प्रगट होती है परन्तु वे उनकी प्रीति छोड़कर आत्मा की प्रीति करते हैं। शरीर का रूप, मेरु जितना विशाल कर डाले और कंथवा जितना छोटा भी कर सके, एक लड्डू में करोड़ों लोगों को जिमावे, शरीर का वजन करोड़ों मन कर सके, ऊपर से देव को उतारना हो तो उतारे - ऐसी सिद्धियाँ, धर्मात्मा को प्रगट हुई हों परन्तु उनकी प्रीति तो संसार में भटकने का कारण है। धर्मी जीव उनकी प्रीति नहीं करते परन्तु आत्मा की प्रीति करते हैं। मूर्ख ब्राह्मण की तरह वे चैतन्य चिन्तामणि को बाह्य विषयों में फेंक नहीं देते। ___ एक था ब्राह्मण। एक बार जंगल में उसके हाथ में चिन्तामणि आ पड़ा। वहाँ-जिस-तिस वस्तु को वह चिन्तन करने लगा - खाने का, मकान, पलंग इत्यादि माँगने ही लगा, वह उसे मिल गया। वहाँ एक कौआ आया, उसे उड़ाने के लिये उस मूर्ख ने चिन्तामणि को फेंका, बस समाप्त! तुरन्त ही मकान, पलंग इत्यादि सब बिखर गया और जैसा था, वैसा हो गया; इसी प्रकार यह मनुष्य देह अनन्त काल में जीव को मिली है, यह चिन्तामणि जैसी है। जो इसे कमाने में और भोग में ही गँवा देता है किन्तु आत्मा की समझ नहीं करता, वह परमार्थ मूर्ख है।
अरे जीव! ऐसा मनुष्य अवतार प्राप्त करके तू अन्यत्र सब
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