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सम्यग्दर्शन : भाग-2]
परमात्मा का प्रतिबिम्ब
भगवान की परम शान्त वीतरागी प्रतिमा के समक्ष समकिती एकावतारी इन्द्र-इन्द्राणी भी भक्ति से नाच उठते हैं। नन्दीश्वर नामक आठवें द्वीप में रत्न के शाश्वत् जिनबिम्ब हैं, वहाँ कार्तिक, फाल्गुन और आषाढ़ महीने में शुक्ल (पक्ष की) अष्टमी से पूर्णिमा तक देव, भक्ति करने जाते हैं। जिस प्रकार आत्मा में परमात्मपने की शक्ति सदैव है और वह शक्ति-प्रगट सर्वज्ञ परमात्मा भी जगत में सदा एक के बाद एक हुआ ही करते हैं, अर्थात् परमात्मदशा को प्राप्त आत्माएँ अनादि से हैं; इसी प्रकार उस परमात्मदशा के प्रतिबिम्बरूप से जिनप्रतिमा भी अनादि से शाश्वत् है। उनके समक्ष जाकर इन्द्र-इन्द्राणी जैसे एकावतारी जीव भी भक्ति से उल्लास करते हुए नाच उठते हैं।
उस समय उन्हें अन्दर भान है कि इस मूर्ति का अस्तित्व इसके द्रव्य-क्षेत्र-काल-भाव में है, शरीर की ऊँची-नीची होने की क्रिया का अस्तित्व उसके द्रव्य-क्षेत्र-काल-भाव में है। मूर्ति में या देह की क्रिया में मेरा अस्तित्व नहीं है; मेरा अस्तित्व मेरे द्रव्य-क्षेत्र-काल-भाव में है - ऐसे सम्यक् भान में स्वाश्रय से अपना स्वकाल अंश तो निर्मल हुआ है और अल्प काल में द्रव्य की परमात्मशक्ति का पूरा आश्रय करने पर पूर्ण निर्मल स्वकाल प्रगट हो जायेगा, अर्थात् स्वयं परमानन्दमय परमात्मा हो जायेगा।
(-पूज्य गुरुदेवश्री के प्रवचन में से)
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