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[सम्यग्दर्शन : भाग-2
विरला विरला: निश्रृण्वन्ति तत्त्वं विरलाः जानन्ति तत्त्वतः तत्त्वं। विरलाः भावयन्ति तत्त्वं विरलानां धारणा भवति॥२७९॥ तत्त्वं कथ्यमानं निश्चलभावेन गृह्णाति यः हि। तत् एव भावयति सदा अपि च तत्त्वं विजानाति ॥२८०॥
जगत में तत्त्व को विरले पुरुष ही सुनते हैं; सुनकर भी तत्त्व को यथार्थरूप से विरले ही जानते हैं; और जानकर भी विरले ही तत्त्व की भावना अर्थात् बारम्बार अभ्यास करते हैं और अभ्यास करके भी तत्त्व की धारणा तो विरलों को ही होती है। __ भावार्थ-तत्त्व का यथार्थस्वरूप सुनना-जानना-भाना और धारण करना, उत्तरोत्तर दुर्लभ है। इस पंचम काल में तत्त्व को यथार्थ कहनेवाले दुर्लभ हैं और धारण करनेवाले भी दुर्लभ हैं।
जो पुरुष, गुरुओं के द्वारा कहे गये जिस तत्त्व का स्वरूप उसे निश्चलभाव से ग्रहण करते हैं तथा अन्य भावना छोड़कर उसे ही निरन्तर भाते हैं, वे पुरुष, तत्त्व को जानते हैं।
स्वामी कार्तिकेयानुप्रेक्षा
विरला जाने तत्त्व को और सुनते कोई। विरला ध्यावे तत्त्व को विरला धारे कोई॥
योगसार, ६६
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