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सम्यग्दर्शन : भाग-2]
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को ही स्वीकार करे और अन्तरङ्ग निमित्तरूप से ज्ञानी को स्वीकार न करे तो उसने वास्तव में सम्यक्त्व को जाना ही नहीं है। सम्यक्त्वरूप से परिणमित होकर जिन्होंने दर्शनमोह के क्षयादिक किये हैं - ऐसे सम्यग्दृष्टि को ही सम्यक्त्व के निमित्तरूप से न स्वीकार करके, जो जीव अकेले शास्त्र से अथवा किसी भी मिथ्यादृष्टि के निमित्त से भी सम्यग्दर्शन हो जाना मानता है, उसे तो सम्यक्त्व के सच्चे निमित्त का भी भान नहीं है। इस प्रकार इस गाथा में सम्यक्त्व के अन्तरङ्ग तथा बाह्य दोनों निमित्तों का स्वरूप बतलाया है।
जयवन्त वर्तो... वह परम कल्याणकारी सम्यक्त्व और उसके अन्तर्बाह्य निमित्त!
एक ज्ञायकभाव ही आश्रय करने योग्य है।
अहा! अनाकुल शान्तरस का पिण्ड प्रभु आत्मा शुद्ध ज्ञायक तत्त्व है, जबकि अन्तरङ्ग में; अर्थात्, पर्याय में उत्पन्न होनेवाले पुण्य-पाप के भाव, शुभाशुभभाव आस्रवभाव हैं। वे आस्रवभाव एक ज्ञायकभाव से विरुद्ध और दुःखरूप होने से नाश करने योग्य हैं और एक ज्ञायकभाव ही आश्रय करने योग्य है। क्यों? इसलिए कि ज्ञायकस्वभाव का आश्रय करने से आस्रव के अभावरूप संवर, निर्जरा और मोक्ष प्रगट होते हैं। इसलिए कहा कि अपने शुद्ध ज्ञायकस्वभाव का आश्रय कर, उसमें ही स्थिर हो, उससे ही प्राप्त कर!
(पूज्य गुरुदेवश्री कानजीस्वामी)
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