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[सम्यग्दर्शन : भाग-2
अपेक्षा से तो ज्ञानी तथा वाणी, ये दोनों बाह्य हेतु हैं । सम्यक्त्व के परमार्थ कारण का तो पूर्व में (इस शुद्धभाव अधिकार में) बहुत वर्णन किया है। अभी इस गाथा में तो उसके निमित्त की बात चलती है। निमित्त में अन्तरङ्ग और बहिरङ्ग ऐसे दो प्रकार कहकर, यहाँ ज्ञानी के आत्मा को मुख्य हेतुरूप से बतलाया है। ___यहाँ अन्तरङ्ग हेतुरूप से मुमुक्षु लिया है क्योंकि अभी कहनेवाले के रूप में साक्षात् केवली भगवान यहाँ नहीं हैं। वीतराग की वाणी अभी तो मुमुक्षु अर्थात् चौथे, पाँचवें, छठवें गुणस्थान में वर्तते धर्मात्माओं से मिलती है; इसलिए उपचार से उन मुमुक्षुओं को अन्तरङ्ग हेतु कहा है। उन मुमुक्षुओं को स्वयं अन्तर में दर्शनमोह के क्षय इत्यादि वर्तते हैं, इसलिए वे सम्यक्त्व के अन्तरङ्ग हेतु हैं। जिसे दर्शनमोह का अभाव न हुआ हो – ऐसा मिथ्यादृष्टि जीव, सम्यक्त्व का निमित्त भी नहीं होता।
सामनेवाले ज्ञानी भी इस आत्मा से बाह्य हैं, इसलिए वे उपचार से हेतु हैं और वाणी की अपेक्षा उनकी आत्मा का अभिप्राय, वह मुख्य निमित्त है - ऐसा बतलाने के लिए, उन्हें उपचार से अन्तरङ्ग हेतु कहा है। धर्मी जीव का अन्तरङ्ग अभिप्राय क्या है ? यह समझकर स्वयं अपने में वैसा अभिप्राय प्रगट करके सम्यग्दर्शन प्राप्त करे, उसमें ज्ञानी अन्तरङ्ग निमित्तकारण हैं और वाणी बाह्य कारण है, यह दोनों कारण व्यवहार से है। निश्चयकारण तो अपना शुद्ध कारणपरमात्मा ही है। उसके आश्रय से सम्यग्दर्शन प्रगट करे, तब निमित्त कैसा होता है? वह यहाँ बतलाया है।
कोई जीव, सम्यक्त्व में मात्र बाह्य निमित्त को, अर्थात् शास्त्र
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