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सम्यग्दर्शन : भाग-1]
[77 पर्यायस्वरूप का निश्चय करता है। अरहन्त को जानते हुए यह प्रतीति करता है कि ऐसा ही पूर्ण स्वभाव है, ऐसा ही मेरा स्वरूप है। ___ अरहन्त के आत्मा को जानने पर, अपना आत्मा किस प्रकार जाना जाता है, इसका कारण यहाँ बतलाते हैं। वास्तव में जो अरहन्त को जानता है, वह निश्चय ही अपने आत्मा को जानता है; क्योंकि दोनों में निश्चय से कोई अन्तर नहीं है।' अरहन्त के जैसे द्रव्य, गुण, पर्याय हैं, वैसे ही इस आत्मा के द्रव्य, गुण, पर्याय हैं। वस्तु, उसकी शक्ति और उसी अवस्था जैसी अरहन्तदेव के है, वैसी ही मेरे भी है। इस प्रकार जो अपने पूर्ण स्वरूप की प्रतीति करता है, वही अरहन्त को यथार्थतया जानता है। यह नहीं हो सकता कि अरहन्त के स्वरूप को तो जाने और अपने आत्मा के स्वरूप को न जाने।
यहाँ स्वभाव की तुलना करके कहते हैं कि अरहन्त का और अपना आत्मा समान ही है; इसलिए जो अरहन्त को जानता है, वह अपने आत्मा को अवश्य जानता है और उसका मोह क्षय हो जाता है। यहाँ पर 'जो अरहन्त को जानता है, वह अपने आत्मा को जानता है;' इस प्रकार अरहन्त के आत्मा के साथ ही इस आत्मा को क्यों मिलाया है, दूसरे के साथ क्यों नहीं मिलाया? जो अरहन्त के आत्मा को जानता है, वह अपने आत्मा को जानता है।' – ऐसा कहा है, इसे अब अधिक स्वरूप में कहते हैं – 'अरहन्त, का स्वरूप अन्तिम तापमान को प्राप्त स्वर्ण के स्वरूप की भाँति परिस्पृष्ट (सब तरह से स्पष्ट) है; इसलिए उसका ज्ञान होने पर सर्व आत्मा का ज्ञान हो जाता है।'
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