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[सम्यग्दर्शन : भाग-1 जैसे अन्तिम ताप से तपाया हुआ सोना बिल्कुल खरा होता है; उसी प्रकार भगवान अरहन्त का आत्मा, द्रव्य-गुण-पर्याय से सम्पूर्णतया शुद्ध है। आचार्यदेव कहते हैं कि हमें तो आत्मा का शुद्ध-स्वरूप बतलाना है, विकार आत्मा का स्वरूप नहीं है। आत्मा विकाररहित शुद्ध पूर्ण स्वरूप है, यह बताना है और इस शुद्ध आत्मस्वरूप के प्रतिबिम्ब समान श्री अरहन्त का आत्मा है, क्योंकि वह सर्व प्रकार शुद्ध है। अन्य आत्मायें सर्व प्रकार शुद्ध नहीं हैं। द्रव्य, गुण की अपेक्षा से सभी शुद्ध हैं, किन्तु पर्याय से शुद्ध नहीं हैं; इसलिए उन आत्माओं को न लेकर अरहन्त के ही आत्मा को लिया है।
उस शुद्ध स्वरूप को जो जानता है, वह अपने आत्मा को जानता है और उसका मोह क्षय हो जाता है, अर्थात् यहाँ आत्मा के शुद्ध स्वरूप को जानने की ही बात है। आत्मा के शुद्ध स्वरूप को जानने के अतिरिक्त मोहक्षय का कोई दूसरा उपाय नहीं है। सिद्ध भगवान के भी पहले अरहन्तदशा थी, इसलिए अरहन्त के स्वरूप को जानने पर उनका स्वरूप भी ज्ञात हो जाता है। अरहन्तदशापूर्वक ही सिद्धदशा होती है।
द्रव्य-गुण तो सदा शुद्ध ही हैं, किन्तु पर्याय की शुद्धि करनी है। पर्याय की शुद्धि करने के लिए यह जान लेना चाहिए कि द्रव्य -गुण-पर्याय की शुद्धता का स्वरूप कैसा है ? अरहन्त भगवान का आत्मा, द्रव्य-गुण और पर्याय तीनों प्रकार से शुद्ध है और अन्य आत्मा, पर्याय की अपेक्षा से पूर्ण शुद्ध नहीं है; इसलिए अरहन्त का स्वरूप जानने को कहा है। जिसने अरहन्त के द्रव्य-गुण-पर्याय स्वरूप को यथार्थ जाना है, उसे शुद्धस्वभाव की प्रतीति हो गयी है
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