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सम्यग्दर्शन : भाग-1]
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है, उस सबको बन्धभाव में निश्चल करती है। इस प्रकार आत्मा को आत्मा में मग्न करती हुई और बन्ध को अज्ञानभाव में नियत करती हुई प्रज्ञाछैनी चलती है – यही पवित्र सम्यग्दर्शन है।
प्रज्ञाछैनी चलती है – इस सम्बन्ध में यहाँ क्रम से बात कही है, समझाने के लिए कम से कथन किया है, किन्तु वास्तव में अन्तरङ्ग में क्रम नहीं पड़ता; लेकिन एक ही साथ विकल्प टूटकर ज्ञान निज में एकाग्र हो जाता है। जिस समय ज्ञान निज में एकाग्र होता है, उसी समय राग से पृथक् हो जाता है, पहले ज्ञान, स्वोन्मुख हो और फिर राग अलग हो – इस प्रकार क्रम नहीं होता।
प्रश्न - इसे समझना तो कठिन मालूम होता है, इसके अतिरक्ति दूसरा कोई सरल मार्ग है या नहीं?
उत्तर - अरे भाई ! इस दुनियादारी में बड़े-बड़े वेतन लेता है और कठिन कार्यों के करने में अपनी बुद्धि लगाता है, वहाँ सब कुछ समझ में आ जाता है और बुद्धि खूब काम करती है; किन्तु इस अपने आत्मा की बात समझने में बुद्धि नहीं चलती; भला यह कैसे हो सकता है ? स्वयं को आत्मा की चिन्ता नहीं है और रुचि नहीं है, इसीलिए उसकी बात समझ में नहीं आती, परन्तु इसे समझे बिना मुक्ति का अन्य कोई भी उपाय नहीं है।
संसार के कार्यों में चतुराई करके राग को पुष्ट करता है और जब आत्मा को समझने का प्रयत्न करने की बात आती है तो कहता है कि मेरी समझ में नहीं आता।
लेकिन यह भी तो विचार कर कि तुझे किसके घर की बात
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