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________________ www.vitragvani.com 48] [सम्यग्दर्शन : भाग-1 शंका कदापि नहीं होती। पहले अनादि काल से विकार को अपना स्वरूप मानकर असावधान हो रहा था, उसकी जगह अब चैतन्यस्वरूप के लक्ष्य से सावधान होकर, विकार का लक्ष्य छोड़ दिया। अब विकार हो तो भी वह मेरे चैतन्यस्वरूप से भिन्न है' इस प्रकार सावधान होकर आत्मा और बन्ध के बीच प्रज्ञारूपी छैनी चलानी चाहिए। ___ 'प्रज्ञारूपी छैनी चलानी चाहिये' इसका अर्थ यह है कि आत्मा में सम्यग्ज्ञान को एकाग्र करना चाहिए। मैं चैतन्यस्वरूप आत्मा हूँ और यह पर की ओर जानेवाली जो वृत्ति है, वह राग है; इस प्रकार आत्मा और बन्ध के पृथक्त्व की सन्धि जानकर, ज्ञान को चैतन्यस्वभावी आत्मा में एकाग्र करने पर, राग का लक्ष्य छूट जाता है। यही प्रज्ञा छैनी का चलाना है। ____5. प्रज्ञाछैनी शीघ्र चलती है – प्रज्ञाछैनी के चलने में विलम्ब नहीं लगता, किन्तु जिस क्षण चैतन्य में एकाग्र होता है, उसी क्षण राग और आत्मा भिन्नरूप से अनुभव में आते हैं। यह इस समय नहीं हो सकता, यह बात नहीं है क्योंकि यह तो प्रतिक्षण कभी भी हो सकता है। प्रज्ञाछैनी के चलने पर क्या होता है अर्थात् प्रज्ञाछैनी किस प्रकार चलती है? अन्तरङ्ग में जिसका चैतन्य तेज स्थिर है, ऐसे ज्ञायकभाव को ज्ञायकरूप से प्रकाशित करती है। मैं ज्ञान हूँ'ऐसा विकल्प भी अस्थिर है, इस विकल्प को तोड़कर सम्यग्ज्ञान मात्र चैतन्य में मग्न होता है; राग से पृथक् होकर ज्ञान चैतन्य में स्थिर होता है, इस प्रकार चैतन्य में मग्न होती हुई निर्मलरूप से प्रज्ञाछैनी चलती है और जितना पुण्य-पाप की वृत्तियों का उत्थान Shree Kundkund-Kahan Parmarthik Trust, Mumbai.
SR No.007768
Book TitleSamyag Darshan Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKundkund Kahan Parmarthik Trust Mumbai
PublisherKundkund Kahan Parmarthik Trust Mumbai
Publication Year
Total Pages344
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size1 MB
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