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सम्यग्दर्शन : भाग-1] सम्यक्त्व के ध्यान की महिमा :
सम्मत्तं जो झायइ समाइट्ठी हवेइ सो जीवो। सम्मत्तपरिणदो उण खवेई दुट्ठट्ठ कम्माणि ॥87॥
अर्थ – जो जीव, सम्यक्त्व की आराधना करता है, वह जीव, सम्यग्दृष्टि है और वह, सम्यक्त्वरूप परिणमित होने से, जो दुष्ट आठ कर्म हैं, उनका क्षय करता है।
भावार्थ – सम्यक्त्व का ध्यान ऐसा है कि - यदि पहले सम्यक्त्व न हुआ हो, तथापि उसके स्वरूप को जानकर उसका ध्यान करे तो वह सम्यग्दृष्टि हो जाता है और सम्यक्त्व प्राप्त होने पर, जीव के परिणाम ऐसे होते हैं कि संसार के कारणरूप जो दुष्ट आठ कर्म हैं, उनका क्षय होता है; सम्यक्त्व होते ही कर्मों की गुणश्रेणी निर्जरा होती है। अनुक्रम से मुनि हो, उस समय चारित्र और शुक्लध्यान उसके सहकारी होने पर सर्वकर्मों का नाश होता है। सम्यक्त्व का माहात्म्य :
किं बहुणा भणिएणं जे सिद्धा णरवरा गए काले। सिज्झिहहि जे भविया ते जाणइ सम्मत्तं माहप्पं ॥
अर्थ – भगवान सूत्रकार कहते हैं कि — 'अधिक कहने से क्या साध्य है ? जो नरप्रधान भूतकाल में सिद्ध हुए हैं तथा भविष्य में सिद्ध होंगे, वह सम्यक्तव का ही माहात्म्य जानो!'
भावार्थ – इस सम्यक्त्व का ऐसा माहात्म्य है कि आठ कर्मों का नाश करके जो भूतकाल में मुक्ति को प्राप्त हुए हैं और भविष्य में होंगे, वे इस सम्यक्त्व से ही हुए हैं और होंगे। इससे आचार्यदेव कहते हैं कि विशेष क्या कहा जाए? संक्षेप में समझ
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