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[सम्यग्दर्शन : भाग-1 लो कि मुक्ति का प्रधानकारण यह सम्यक्त्व ही है। ऐसा मत समझो कि गृहस्थों को क्या धर्म होता है ! यह सम्यक्त्व धर्म ऐसा है कि जो सर्वधर्म के अङ्ग को (श्रावकधर्म और मुनिधर्म को) सफल करता है।
जो निरन्तर सम्यक्त्व का पालन करने वाले ही धन्य – ते धण्णा सुकयत्था ते सूरा ते वि पंडिया मणुया। सम्मत्तं सिद्धियरं सिविणे वि ण मइलियं जेहिं॥ ते धन्याः सुकृतार्थः ते शूराः तेऽपि पंडिता मनुजाः। सम्यक्त्वं सिद्धकरं स्वप्रेपि न मलिनितं यैः॥ अर्थ – जिस पुरुष को मुक्ति का करनेवाला सम्यक्त्व है और उसे (सम्यक्त्व को) स्वप्नावस्था में भी मलिन नहीं किया है -अतिचार नहीं लगाया है, वह पुरुष धन्य है, वही मनुष्य है, वही कृतार्थ है, वही शूरवीर है और वहीं पण्डित है।
भावार्थ - लोक में कोई दानादिक करे, उसे धन्य कहते हैं तथा विवाह, यज्ञादिक करता है, उसके कृतार्थ कहते हैं, युद्ध से पीछे न हटे, उसे शूरवीर कहते हैं, अनेक शास्त्र पढ़े हों, उसे पण्डित कहते हैं - यह सब कथनमात्र है; वास्तव में तो मोक्ष का कारण जो सम्यक्त्व है, उसे मलिन न करे, निरतिचार पाले, वही धन्य है, वही कृतार्थ है, वही शूरवीर है, वही पण्डित है, वही मनुष्य है। इस (सम्यक्त्व) के बिना पशु समान है – ऐसा सम्यक्त्व का माहात्म्य कहा है।
सम्यक्त्व ही प्रथम धर्म है और यही प्रथम कर्तव्य है। सम्यग्दर्शन के बिना ज्ञान, चारित्र और तप में सम्यक्पना नहीं आता। सम्यग्दर्शन
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