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श्रावकों का प्रथम कर्तव्य श्रावक को प्रथम क्या करना चाहिए? :
गहिऊण य सम्मत्तं सुणिम्मलं सुरगिरीव णिकंपं। तंझाणे झाइज्जइ सावय! दुक्खक्खयट्ठाए॥ 86॥
अर्थ – प्रथम तो श्रावक को, सुनिर्मल कहने से भली -भाँति निर्मल और मेरुवत् निष्कंप, अचल और चल, मलिन तथा अगाढ़-इन तीन दूषणों से रहित अत्यन्त-निश्चल- ऐसे सम्यक्त्व को ग्रहण करके, उसे (सम्यक्त्व के विषयभूत एकरूप आत्मा को) ध्यान में ध्याना चाहिए, किसलिए ध्याना चाहिए? दु:ख के क्षय के लिए। ___ भावार्थ - श्रावक को प्रथम तो निरतिचार निश्चल सम्यक्त्व को ग्रहण करके उसका ध्यान करना चाहिए कि जिस सम्यक्त्व की भावना से गृहस्थ को गृहकार्य सम्बन्धी आकुलता, क्षोभ, दुःख जो हों, वह मिट जाए।
कार्य के बिगड़ने-सुधरने में 'वस्तु के स्वरूप का विचार आये', उस समय दु:ख मिट जाता है। सम्यग्दृष्टि को ऐसा विचार होता है कि सर्वज्ञ ने जैसा वस्तु का स्वरूप जाना है, वैसा ही निरन्तर परिणमित होता है और वही होता है, उसमें इष्ट-अनिष्ट मानकर दुःखी-सुखी होना, निष्फल है। ऐसे विचार से दुःख दूर होता है, वह प्रत्यक्ष अनुभवगोचर है, इससे सम्यक्त्व का ध्यान करना कहा है।
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