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सम्यग्दर्शन : भाग-1]
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सम्यग्दर्शनरहित जीव का स्वर्ग में रहना भी शोभा नहीं देता, क्योंकि आत्मस्वभाव बिना स्वर्ग में भी वह दु:खी है । जहाँ आत्मज्ञान है, वहीं सच्चा सुख है।
( - सारसमुच्चय - ३९)
निर्वाण और परिभ्रमण
जो जीव, सम्यग्दर्शन से युक्त है, उस जीव को निश्चित ही निर्वाण का संगम होता है और मिथ्यादृष्टि जीव को सदैव संसार में परिभ्रमण होता है। ( - सारसमुच्चय - ४१)
कौन भवदुःख का नाश करता है ? सम्यक्त्वभाव की शुद्धि द्वारा जो जीव, विषयों के सङ्ग से रहित है और कषायों का विजयी है, वही जीव, भवभय के दुःखों को नष्ट कर देता है।
(
- सारसमुच्चय - ५० )
तीन लोक का सार
केवल एक आत्मा ही सम्यग्दर्शन है, इसके अतिरिक्त अन्य सब व्यवहार है; इसलिये हे योगी ! एक आत्मा ही ध्यान करनेयोग्य है, वही तीन लोक में सारभूत है ।
( - परमात्मप्रकाश - १-१६)
सम्यक्त्व की दुर्लभता
काल अनादि है, जीव भी अनादि है और भव- समुद्र भी अनादि है, परन्तु अनादि काल से भव-समुद्र में गोते खाते हुए, इस जीव ने दो वस्तुएँ कभी प्राप्त नहीं की - एक तो श्री जिनवरस्वामी और दूसरा सम्यक्त्व।
- परमात्मप्रकाश - २ - १४३ )
ज्ञान - चारित्र की शोभा सम्यक्त्व से ही है विशेष ज्ञान या चारित्र न हो, तथापि यदि अकेला सम्यग्दर्शन
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