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________________ www.vitragvani.com 314] [सम्यग्दर्शन : भाग-1 परिणामों को सुधारकर उसे ज्ञान का उपाय मानते हैं, वे जीव, सम्यग्ज्ञान के उपाय को नहीं समझे हैं। व्यवहार का निषेध करके परमार्थस्वभाव को समझे बिना व्यवहार का भी सच्चा ज्ञान नहीं हो सकता। कषाय की मन्दता के द्वारा मिथ्यात्व की मन्दता होती है, उसे व्यवहार सम्यग्दर्शन नहीं कहते, किन्तु सच्ची समझ की ओर के प्रयत्न से ही व्यवहार-सम्यक्त्व होता है, किन्तु यह व्यवहार -सम्यक्त्व भी निश्चय सम्यग्दर्शन का कारण नहीं है। यदि देव -शास्त्र-गुरु के लक्ष्य में ही रुक जाये तो सम्यग्दर्शन नहीं होगा। जिस समय चिन्मात्रस्वभाव के आश्रय से श्रद्धा-ज्ञान करता है, उस समय ही सम्यक्श्रद्धा-ज्ञान प्रगट होता है। चैतन्य की श्रद्धा चैतन्य के द्वारा ही होती है; राग के द्वारा या पर के द्वारा नहीं होती। बाह्य-क्रियाओं के आश्रय से कषाय की मन्दता नहीं होती और कषाय की मन्दता से पर्याय की स्वतन्त्रता की श्रद्धा नहीं होती। दयादि के परिणामों का पुरुषार्थ तो करते हैं, किन्तु वर्तमान पर्याय स्वतन्त्र है – ऐसी व्यवहार श्रद्धा का उपाय उससे भिन्न प्रकार का है। परजीव के कारण या परद्रव्यों के कारण मेरे दयादिरूप परिणाम हुए हैं अथवा कर्म के कारण रागादि हुए - ऐसी मान्यतापूर्वक कषाय की मन्दता करे, किन्तु उस मन्दकषाय में व्यवहारश्रद्धा करने की शक्ति नहीं है तो फिर उससे सम्यग्दर्शन तो हो ही कैसे सकता है? पर के कारण मेरे परिणाम नहीं होते; मैं अपने से ही कषाय की Shree Kundkund-Kahan Parmarthik Trust, Mumbai.
SR No.007768
Book TitleSamyag Darshan Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKundkund Kahan Parmarthik Trust Mumbai
PublisherKundkund Kahan Parmarthik Trust Mumbai
Publication Year
Total Pages344
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size1 MB
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