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सम्यग्दर्शन : भाग-1]
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नहीं सुधरता। शास्त्र में जड़ - चैतन्य की स्वाधीनता, उपादाननिमित्त की स्वतन्त्रता बतलायी है; जो यह नहीं समझता, उसके ज्ञान का व्यवहार भी नहीं सुधरा है । चैतन्यस्वभाव का ज्ञान तो व्यवहार से भी पार है । आत्मज्ञान, वह परमार्थज्ञान है और शास्त्र के आशय का यथार्थ ज्ञान, वह ज्ञान का व्यवहार है । जिसके ज्ञान का व्यवहार भी ठीक नहीं है, उसके परमार्थज्ञान कैसा ?
बाह्यक्रिया तो ज्ञान का कारण नहीं है, किन्तु जो अन्तरङ्ग में व्यवहार आचरण के मन्दकषायरूप परिणाम होते हैं, वे परिणाम भी शास्त्रज्ञान का कारण नहीं होते और स्वभाव का ज्ञान तो शास्त्रज्ञान से भी पार है। शास्त्रज्ञान के राग के अवलम्बन को दूर करके, जब परमात्मस्वभाव का अनुभव करता है, उस समय सम्यक् श्रद्धा होती है। जिस समय श्रद्धा में राग का नाश करके, निज परमात्मस्वभाव को अपना जाना, उस समय जीव को परमात्मा ही उपादेय है। आत्मा तो त्रिकाल परमात्मा है, किन्तु जब राग के आलम्बनरहित होकर उसकी प्रतीति करता है, तब वह उपादेयरूप होता है, वह राग के द्वारा नहीं जाना जाता ।
कितनी भक्ति से आत्मा समझ में आता है ? भक्ति से आत्मा नहीं समझा जा सकता। कितने उपवासों से आत्मा समझ में आयेगा ? उपवास के शुभपरिणामों से आत्मा समझ में नहीं आता। कोई भी शुभपरिणाम, सम्यग्ज्ञान की रीति नहीं है, किन्तु जब स्वभाव के लक्ष्य से यथार्थ शास्त्र का अर्थ समझता है, तब ज्ञान का व्यवहार सुधरता है; पहले ज्ञान के आचरण सुधरे बिना चारित्र के आचरण नहीं सुधरते। यदि सम्यग्ज्ञान और सम्यग्दर्शन की रीति को ही नहीं जाने तो वह कहाँ से होगा ? अनेक जीव आचरण के
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