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[सम्यग्दर्शन : भाग-1 तक शास्त्र के सच्चे अर्थ को न समझ ले, तब तक जीव के सम्यग्ज्ञान नहीं हो सकता। दयादिरूप मन्द-कषाय के परिणामों से व्यवहारज्ञान की भी शुद्धि नहीं होती।
बाह्य-क्रियाओं पर परिणामों का आधार नहीं है। कोई द्रव्यलिङ्गी मुनियों के साथ रहता हो और किसी के बाह्यक्रिया बराबर होती हो, तथापि एक नववें ग्रैवेयक में जाता है और दूसरा पहले स्वर्ग में, क्योंकि परिणामों में कषाय की मन्दता, बाह्य-क्रिया से नहीं होती।
अब, अन्तरङ्ग में जो शुभपरिणाम करता है, उससे व्यवहारज्ञान की शुद्धि नहीं होती, किन्तु वह यथार्थ ज्ञान के अभ्यास से ही होती है। ज्ञान की व्यवहारशुद्धि से भी आत्मस्वभाव का सम्यग्ज्ञान नहीं होता, किन्तु अपने परमात्मस्वभाव का रागरहित रूप से अनुभव करे, तभी सम्यग्ज्ञान होता है । सम्यग्ज्ञान में पराश्रय नहीं, स्वभाव का ही आश्रय है।
वस्तुस्वभाव ही स्वतन्त्र और परिपूर्ण है, उसे किसी के आश्रय की आवश्यकता नहीं है। स्वभाव के आश्रय से ही सम्यग्दर्शन होता है। नववें ग्रैवेयक में जानेवाले जीव के देव-शास्त्र-गुरु की यथार्थ श्रद्धा, ग्यारह अङ्ग का ज्ञान और पञ्च महाव्रतों का पालन - ऐसे परिणाम होने पर भी, चैतन्यस्वभाव की श्रद्धा करने के लिये वे परिणाम काम में नहीं आते। स्वभाव के लक्ष्यपूर्वक मन्दकषाय हो तो वहाँ मन्दकषाय की मुख्यता नहीं रही, किन्तु शुद्धस्वभाव के लक्ष्य की ही मुख्यता है। स्वभाव की श्रद्धा को व्यवहाररत्नत्रय की सहायता नहीं होती।
कषाय की मन्दतारूप आचरण के द्वारा श्रद्धा-ज्ञान का व्यवहार
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