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सम्यग्दर्शन : भाग-1]
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मन्दता करता हूँ। पर के कारण या कर्म के कारण मेरी पर्याय में रागादि नहीं होते-ऐसी पर्याय की स्वतन्त्रता की श्रद्धा, वह व्यवहार श्रद्धा है। मिथ्यात्व के रस को मन्द करके पर्याय की स्वतन्त्रता की श्रद्धा करने की जिसकी शक्ति नहीं है, उस जीव के सम्यग्दर्शन नहीं होता। यदि इस समय पर्याय की स्वतन्त्रता माने तो मिथ्यात्व मन्द होता है और उसको व्यवहार-सम्यक्त्व कहते हैं। मात्र कषाय की मन्दता के द्वारा मिथ्यात्व की मन्दता हो, उसे व्यवहार-सम्यक्त्व नहीं कहते, क्योंकि श्रद्धा और चारित्र की पर्याय भिन्न-भिन्न है।
जो जीव, जड की क्रिया अथवा कर्म के कारण आत्मा के परिणाम मानते हैं, उन्होंने परिणामों की स्वतन्त्रता भी नहीं मानी है। यदि वे शुभभाव करें तो भी उनके मिथ्यात्व की मन्दता यथार्थ रीति से नहीं होती और वे द्रव्यलिङ्गी से भी छोटे हैं। जिनके अशुभपरिणाम होते हैं, ऐसे जीवों की अभी बात नहीं है, किन्तु यहाँ तो मन्दकषायवाले जीवों की बात है। जो जीव अपने परिणामों की स्वतन्त्रता को नहीं जानते, उनके मन्दकषाय होने पर भी, व्यवहारश्रद्धा तक नहीं होती।
जो जीव, पर्याय की स्वतन्त्रता मानते हुए भी, पर्यायबुद्धि में अटके हैं, वे जीव भी मिथ्यादृष्टि हैं।
जो अंश स्वतन्त्र हैं, ऐसी व्यवहारश्रद्धा करने की शक्ति कषाय की मन्दता में नहीं है। मैं अपने परिणामों में अटका हूँ, इसी से विकार होता है - ऐसी अंश की स्वतन्त्रता माने तो स्वयं उसका निषेध करे, किन्तु यदि ऐसा माने कि पर विकार कराता है, तो स्वयं कैसे उसका निषेध कर सकता है ? निमित्त या संयोग से मेरे
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