________________
www.vitragvani.com
धर्म-साधन
धर्म के लिए प्रधानतया दो वस्तुओं की आवश्यकता है । 1.क्षेत्र - विशुद्धि, 2. यथार्थ बीज
क्षेत्र - विशुद्धि संसार के अशुभ निमित्तों के प्रति जो आसक्ति है, उसमें मन्दता; ब्रह्मचर्य का रङ्ग; कषाय की मन्दता; देव, शास्त्र, गुरु के प्रति भक्ति तथा सत् की रुचि आदि का होना, क्षेत्र - विशुद्धि है । वह प्रथम होती ही है
I
किन्तु केवल क्षेत्र - विशुद्धि से ही धर्म नहीं होता । क्षेत्र - विशुद्धि तो प्रत्येक जीव ने अनेकबार की है, क्षेत्र - विशुद्धि (यदि भानसहित हो) तो बाह्य साधन है, व्यवहार साधन है।
पहले क्षेत्र-विशुद्धि के बिना कभी भी धर्म नहीं हो सकता; किन्तु क्षेत्र - विशुद्धि के होने पर भी, यदि यथार्थ बीज न हो तो भी धर्म नहीं हो सकता।
—
I
यथार्थ बीज मेरा स्वभाव निरपेक्ष, बन्ध-मोक्ष के भेद से रहित, स्वतन्त्र, परनिमित्त के आश्रय से रहित है । स्वाश्रय स्वभाव के बल पर ही मेरी शुद्धता प्रगट होती है; इस प्रकार अखण्ड निरपेक्ष स्वभाव की निश्चयश्रद्धा का होना, वह यथार्थ बीज है । वही अन्तर साधन अर्थात् निश्चय साधन है । जीव ने कभी अनादि ाल में स्वभाव की निश्चय श्रद्धा नहीं की है । उस श्रद्धा के बिना अनेकबार बाह्य साधन किये, फिर भी धर्म प्राप्त नहीं हुआ ।
T
Shree Kundkund - Kahan Parmarthik Trust, Mumbai.