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[ सम्यग्दर्शन : भाग-1
इसलिए धर्म में मुख्य साधन है यथार्थ श्रद्धा; और जहाँ यथार्थ श्रद्धा होती है, वहीँ बाह्य - साधन होते हैं। बिना यथार्थ श्रद्धा के बाह्य साधन से कभी धर्म नहीं होता ।
इसलिए प्रत्येक जीव का प्रथम कर्तव्य आत्मस्वरूप की यथार्थ श्रद्धा करना है। अनन्त काल में दुर्लभ मनुष्यपर्याय और फिर उसमें उत्तम जैनधर्म तथा सत्-समागम का योग मिलने पर भी, यदि स्वभाव के बल से सत् की श्रद्धा नहीं की तो फिर चौरासी के जन्म-मरण में ऐसी उत्तम मनुष्यपर्याय मिलना दुर्लभ है।
आचार्य महाराज कहते हैं कि एकबार स्वाश्रय की श्रद्धा करके इतना तो कह कि मेरे स्वभाव को 'पर का आश्रय नहीं, ' बस, इस प्रकार स्वाश्रय की श्रद्धा करने से तेरी मुक्ति निश्चित है। सभी आत्मा प्रभु हैं । जिसने अपनी प्रभुता को मान लिया, वह प्रभु हो
गया।
इस प्रकार प्रत्येक जीव का सर्वप्रथम कर्तव्य सत्समागम द्वारा स्वभाव की यथार्थ श्रद्धा (सम्यग्दर्शन) करना है । निश्चय से यही धर्म (मुक्ति) का प्रथम साधन है।
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