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________________ www.vitragvani.com (आत्महिताभिलाषी का प्रथम कर्तव्यः तत्त्वनिर्णय) तत्त्वनिर्णयरूप धर्म तो, बालक-वृद्ध; रोगी-निरोगी, धनवान -निर्धन, सुक्षेत्री तथा कुक्षेत्री आदि सभी अवस्था में प्राप्त होने योग्य हैं, इसलिए जो पुरुष अपना हित चाहता है, उसे सबसे पहले यह तत्त्वनिर्णयरूप कार्य ही करना योग्य है। तत्त्वज्ञानतरंगिणी में कहा है कि - न क्लेशों न धनव्ययो न गमनं देशान्तरे प्रार्थना। केषांचिन्न बलक्षयो न तु भयं पीड़ा न कस्माश्च न॥ सावद्यं न न रोग जन्मपतनं नैवान्य सेवा न हि। चिद्रूपं स्मरणे फलं बहुतरं किन्नाद्रियंते बुधाः॥ अर्थात् – चिद्रूप (ज्ञानस्वरूप) आत्मा का स्मरण करने में न तो क्लेश होता है, न धन खर्च करना पड़ता है, न ही देशान्तर में जाना पड़ता है, न किसी के समक्ष प्रार्थना करनी पड़ती है, न बल का क्षय होता है, न ही किसी ओर से भय अथवा पीड़ा होती है और वह सावध (पाप का कार्य) भी नहीं है, उससे रोग अथवा जन्म -मरण में पड़ना नहीं पड़ता, किसी की सेवा नहीं करनी पड़ती, ऐसी बिना किसी कठिनाई के ज्ञानस्वरूप आत्मा के स्मरण का बहुत फल है, तब फिर समझदार पुरुष उसे क्यों नहीं ग्रहण करते? और फिर जो तत्त्वनिर्णय के सन्मुख नहीं हुए हैं, उन्हें जाग्रत करने के लिये उलाहना दिया है कि - Shree Kundkund-Kahan Parmarthik Trust, Mumbai.
SR No.007768
Book TitleSamyag Darshan Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKundkund Kahan Parmarthik Trust Mumbai
PublisherKundkund Kahan Parmarthik Trust Mumbai
Publication Year
Total Pages344
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size1 MB
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