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सम्यग्दर्शन : भाग-1]
साहीणे गुरु जोगेजे ण सुणंतीह धम्मवयणाई। ते धिट्ठदुट्ठचित्ता अह सुहडा भवभय विहुणा॥ अर्थात् – स्वाधीन गुरु का योग होने पर भी, जो धर्म-वचनों को नहीं सुनते, वे धीठ और दुष्ट चित्तवाले हैं अथवा वे भव भयरहित, अर्थात् जिस संसारभय से तीर्थङ्करादि डरे, उससे भी नहीं डरनेवाले सुभट हैं। - ऐसा कहकर उन पर कटाक्ष किया है।
जो शास्त्राभ्यास के द्वारा तत्त्वनिर्णय तो नहीं करते और विषय-कषाय के कार्यों में ही मग्न रहते हैं, वे अशुभोपयोगी मिथ्यादृष्टि हैं तथा जो सम्यग्दर्शन के बिना पूजा, दान, तप, शील, संयमादि व्यवहारधर्म में (शुभभाव में) मग्न हैं, वे शुभोपयोगी मिथ्यादृष्टि हैं। इसलिए भाग्योदय से जिनने मनुष्य पर्याय प्राप्त की है, उनको तो सर्वधर्म का मूलकारण सम्यग्दर्शन; और उसका कारण तत्त्वनिर्णय तथा उसका भी जो मूलकारण सत्समागम और शास्त्राभ्यास है, वह अवश्य करना योग्य है, किन्तु जो ऐसे अवसर को व्यर्थ गंवाते हैं, उन पर बुद्धिमान, करुणा करते कहते हैं कि -
प्रज्ञैव दुर्लभा सुष्ठ दुर्लभा सान्यजन्मने। तां प्राप्त ये प्रमाद्यंति ते शोच्याः खलु धीमताम्॥
(-आत्मानुशासन, श्लोक-94) अर्थात् – प्रथम तो संसार में बुद्धि का होना ही दुर्लभ है और फिर उसमें भी परलोक के लिए बुद्धि का होना तो अति दुर्लभ है, ऐसी बुद्धि पाकर, जो प्रमाद करते हैं, उन जीवों के विषय में ज्ञानियों को शोच होता है।
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