________________
www.vitragvani.com
अविरत सम्यग्दृष्टि का परिणमन
अविरत सम्यग्दृष्टि के भी अज्ञानमय राग-द्वेष - मोह नहीं होते । मिथ्यात्वसहित रागादिक हों, वही अज्ञान के पक्ष में गिने जाते हैं । सम्यक्त्वसहित रागादिक, अज्ञान के पक्ष में नहीं हैं ।
सम्यग्दृष्टि के निरन्तर ज्ञानमय ही परिणमन होता है । उसे चारित्र की अशक्ति से जो रागादि होते हैं, उनका स्वामित्व उसे नहीं है। वह रागादिक को रोग समान जानकर वर्तता है और अपनी शक्ति अनुसार उन्हें काटता जाता है । इसलिए ज्ञानी को जो रागादिक होते हैं, वे विद्यमान होने पर भी, अविद्यमान जैसे हैं; वह आगामी संसार का बन्ध नहीं करता, मात्र अल्पस्थिति-अनुभागवाला बन्ध करता है। ऐसे अल्पबन्ध को गौण करके बन्ध नहीं गिना जाता है। - समयसार - आस्रव - अधिकार )
सम्यक्त्व की प्रधानता
जे सम्यक्त्वप्रधान बुध, तेज त्रिकोक प्रधान । पामे केवलज्ञान झट, शाश्वत सौख्य निधान ॥
भावार्थ: जिसे सम्यक्त्व की प्रधानता है, वह ज्ञानी है, और वही तीन लोक में प्रधान है; जिसे सम्यक्त्व की प्रधानता है, वह जीव शाश्वत सुख के निधान – ऐसे केवलज्ञान को भी जल्दी प्राप्त कर लेता है।
- योगसार 90
Shree Kundkund - Kahan Parmarthik Trust, Mumbai.