________________
www.vitragvani.com
सम्यग्दर्शन : भाग-1]
[301
नहीं बदल सकती। जो विकल्प में ही अटक जाता है, वह मिथ्यादृष्टि है, विकल्परहित होकर अभेद का अनुभव करना सो सम्यग्दर्शन है और यही समयसार है । यही बात निम्नलिखित गाथा में कही
है
-
कम्मं बद्धमबद्धं जीवे एवं तु जाण णयपक्खं । पक्खातिक्कंतो पुण भण्णदि जो सो समयसारे ॥ 142 ॥
समयसार
हिन्दी पद्यानुवाद
'आत्मा कर्म, से बद्ध है या अबद्ध' इस प्रकार दो भेदों के विचार में लगना, सो नय का पक्ष है । 'मैं आत्मा हूँ, पर से भिन्न हूँ', इस प्रकार का विकल्प भी राग है। इस राग की वृत्ति कानय के पक्षों का उल्लंघन करे तो सम्यग्दर्शन प्रगट हो ।
-
'मैं बँधा हुआ हूँ अथवा मैं बन्धरहित मुक्त हूं', इस प्रकार की विचार श्रेणी का उल्लंघन करके जो आत्मा का अनुभव करता है, सो सम्यग्दृष्टि है और वही समयसार अर्थात् शुद्धात्मा है।
मैं अबन्ध हूँ, बन्ध मेरा स्वरूप नहीं है; इस प्रकार भङ्ग की विचारश्रेणी के कार्य में जो लगता है, वह अज्ञानी है और उस भङ्ग के विचार को उल्लंघन करके अभङ्गस्वरूप का स्पर्श करना (अनुभव करना), सो प्रथम आत्मधर्म अर्थात् सम्यग्दर्शन है । 'मैं पराश्रयरहित अबन्ध शुद्ध हूँ', ऐसे निश्चय के पक्ष का जो विकल्प है, सो राग है और उस राग में जो अटक जाता है, (राग को ही सम्यग्दर्शन मान लेता है, किन्तु राग रहित स्वरूप का अनुभव नहीं करता) वह मिथ्यादृष्टि है ।
Shree Kundkund - Kahan Parmarthik Trust, Mumbai.