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[सम्यग्दर्शन : भाग-1 भेद का विकल्प उठता तो है, तथापि उससे सम्यग्दर्शन नहीं
होता
अनादि काल से आत्मस्वरूप का अनुभव नहीं है, परिचय नहीं है; इसलिए आत्मानुभव करने से पूर्व तत्सम्बन्धी विकल्प उठे बिना नहीं रहते। अनादि काल से आत्मा का अनुभव नहीं है; इसलिये वृत्तियों का उफान होता है कि – मैं आत्मा, कर्म से सम्बन्ध से युक्त हूँ अथवा कर्म के सम्बन्ध से रहित हूँ – इस प्रकार दो नयों के दो विकल्प उठते हैं, परन्तु 'कर्म के सम्बन्ध से युक्त हूँ अथवा कर्म के सम्बन्ध से रहित हूँ अर्थात बद्ध हूँ या अबद्ध हूँ', ऐसे दो प्रकार के भेद का भी एक स्वरूप में कहाँ अवकाश है ? स्वरूप तो नयपक्ष की अपेक्षाओं से परे है। एक प्रकार के स्वरूप में दो प्रकार की अपेक्षायें नहीं हैं। मैं शुभाशुभभाव से रहित हूँ, इस प्रकार के विचार में लगना भी एक पक्ष है, इससे भी उसपार स्वरूप है; स्वरूप तो पक्षातिक्रान्त है, वही सम्यग्दर्शन का विषय है, अर्थात् उसी के लक्ष्य से सम्यग्दर्शन प्रगट होता है। इसके अतिरिक्त सम्यग्दर्शन प्रगट करने का दूसरा कोई उपाय नहीं है। ___'सम्यग्दर्शन का स्वरूप क्या है ? देह की किसी क्रिया से सम्यग्दर्शन नहीं होता, जड़कर्मों से नहीं होता, अशुभराग अथवा शुभराग के लक्ष्य से भी सम्यग्दर्शन नहीं होता और मैं पुण्य-पाप के परिणामों से रहित ज्ञायकस्वरूप हूँ' - ऐसा विचार भी स्वरूप का अनुभव कराने के लिये समर्थ नहीं है। मैं ज्ञायक हूँ', इस प्रकार के विचार में जो अटका सो वह भेद के विचार में अटक गया है, उसे भी सम्यग्दर्शन नहीं होता। स्वरूप तो ज्ञाता-दृष्टा है, उसका अनुभव ही
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