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सम्यग्दर्शन का स्वरूप और वह कैसे प्रगटे ?
सम्यग्दर्शन स्वयं आत्मा के श्रद्धागुण की निर्विकारी पर्याय है । अखण्ड आत्मा के लक्ष्य से सम्यग्दर्शन प्रगट होता है । सम्यग्दर्शन को किसी विकल्प का अवलम्बन नहीं है, किन्तु निर्विकल्पस्वभाव के अवलम्बन से सम्यग्दर्शन प्रगट होता है । यह सम्यग्दर्शन ही आत्मा के सर्व सुख का कारण है। 'मैं ज्ञानस्वरूप आत्मा हूँ, बन्ध रहित हूँ' –ऐसा विकल्प करना, वह भी शुभराग है, उस शुभराग का अवलम्बन भी सम्यग्दर्शन के नहीं है, उस शुभ विकल्प का उल्लंघन करने पर सम्यग्दर्शन प्रगट होता है । सम्यग्दर्शन स्वयं राग और विकल्परहित निर्मल भाव है, उसे किसीविकार का अवलम्बन नहीं है, किन्तु सम्पूर्ण आत्मा का अवलम्बन है, वह सम्पूर्ण आत्मा को स्वीकार करता है ।
एकबार विकल्परहित होकर अखण्ड ज्ञायकस्वभाव को लक्ष्य में लिया, वहाँ सम्यक् प्रतीति हुई । अखण्ड स्वभाव का लक्ष्य ही स्वरूप की सिद्धि के लिए कार्यकारी है। अखण्ड सत्यस्वरूप को जाने बिना, श्रद्धा किये बिना 'मैं ज्ञानस्वरूप आत्मा हूँ, अबद्धस्पष्ट हूँ' इत्यादि विकल्प भी स्वरूप की शुद्धि के लिये कार्यकारी नहीं हैं । एकबार अखण्ड ज्ञायकस्वभाव का लक्ष्य करने के बाद जो वृत्तियाँ उठती हैं, वे वृत्तियाँ अस्थिरता का कार्य करती हैं; परन्तु वे स्वरूप को रोकने के लिए समर्थ नहीं हैं; क्योंकि श्रद्धा में तो वृत्तिविकल्परहित स्वरूप है; इसलिए जो वृत्ति उठती है, वह श्रद्धा को
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