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सम्यग्दर्शन : भाग-1] आयु 40-50 वर्ष की कही जाती है और जीव अस्तिरूप से अनादि-अनन्त है। जहाँ यह कहा जाता है कि – 'यह मुझसे पाँच वर्ष छोटा है या पाँच वर्ष बड़ा है' वहाँ शरीर के कद की अपेक्षा से छोटा-बड़ा नहीं होता; किन्तु काल की अपेक्षा से छोटा-बड़ा कहा जाता है। यदि कालद्रव्य की अपेक्षा न रहे तो यह नहीं कहा जा सकता कि यह छोटा है, यह बड़ा है; यह बालक है, वह युवा है, यह वृद्ध है। जो नयी-पुरानी अवस्थायें बदलती रहती हैं, उनसे कालद्रव्य का अस्तित्व निश्चित होता है। ___कभी तो जीव और शरीर स्थिर होते हैं और कभी गमन करते हैं। वे स्थिर होने और गमन करने की दशा में दोनों समय आकाश में ही होते हैं; इसलिए आकाश के कारण उनका गमन अथवा स्थिर रहना निश्चित नहीं हो सकता। गमनरूप दशा और स्थिर रहने की दशा, इन दोनों को भिन्न-भिन्न जानने के लिये उन दोनों अवस्थाओं में भिन्न-भिन्न निमित्तरूप दो द्रव्यों को जानना होगा। धर्मद्रव्य के निमित्त से जीव-पुद्गल का गमन जाना जा सकता है
और अधर्मद्रव्य के निमित्त से जीव-पुद्गल की स्थिरता जानी जा सकती है। यदि यह धर्म और अधर्मद्रव्य न हों तो गमन और स्थिरता के भेद नहीं जाने जा सकते। __धर्म, अधर्मद्रव्य, जीव और पुद्गलों को रति अथवा स्थिति करने में वास्तव में सहायक नहीं होते। एक द्रव्य के भाव को अन्य द्रव्य की अपेक्षा के बिना पहचाना नहीं जा सकता। जीव के भाव को पहचानने के लिये अजीव की अपेक्षा होती है। जो जानना है, सो जीव है, —ऐसा कहते ही यह बात स्वतः आ जाती है कि जो ज्ञातृत्व से रहित हैं, वे द्रव्य, जीव नहीं हैं और इस प्रकार अजीव
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