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[ सम्यग्दर्शन : भाग-1
पुद्गल - निर्मित यह शरीर कुछ भी नहीं जानता । यदि शरीर का कोई अङ्ग कट जाए, तथापि जीव का ज्ञान नहीं कट जाता; जीव तो सम्पूर्ण बना रहता है, क्योंकि जीव और शरीर सदा भिन्न हैं, दोनों का स्वरूप भिन्न है और दोनों का पृथक् कार्य है । यह जीव और पुद्गल तो स्पष्ट हैं। जीव और शरीर कहाँ रहते हैं ? वे अमुक स्थान पर दो, चार या छह फुट के स्थान में रहते हैं; इस प्रकार स्थान अथवा जगह के कहने पर 'आकाशद्रव्य' सिद्ध हो जाता है
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यह ध्यान रखना चाहिए कि जहाँ यह कहा जाता है कि जीव और शरीर अकाश में रह रहे हैं, वहाँ वास्तव में जीव, शरीर और आकाश - तीनों स्वतन्त्र पृथक्-पृथक् हैं; कोई एक-दूसरे के स्वरूप में प्रविष्ट नहीं हो जाता। जीव तो ज्ञातास्वरूप में ही विद्यमान है; रूप, रस, गन्ध इत्यादि शरीर में ही हैं, वे आकाश अथवा जीव इत्यादि किसी में भी नहीं हैं। आकाश में न तो रूप, रस इत्यादि हैं और न ज्ञान ही है; वह अरूपी - अचेतन है । जीव में ज्ञान है, किन्तु रूप, रस, गन्ध नहीं हैं, अर्थात् वह अरूपी-चेतन है । पुद्गल ं में रूप, रस, गन्ध इत्यादि हैं, किन्तु ज्ञान नहीं है, अर्थात् वह रूपीअचेतन है। इस प्रकार तीनों द्रव्य एक-दूसरे से भिन्न - स्वतन्त्र हैं। कोई अन्य वस्तु स्वतन्त्र वस्तुओं का कुछ नहीं कर सकती । यदि एक वस्तु में दूसरी वस्तु कुछ करती हो तो वस्तु को स्वतन्त्र कैसे कहा जायेगा ?
इस प्रकार जीव, पुद्गल और आकाश का निश्चय करके कालद्रव्य का निश्चय करते हैं । प्रायः ऐसा पूछा जाता है कि ‘आपकी आयु कितनी है ?' (यहाँ पर 'आपकी' से मतलब शरीर और जीव दोनों की आयु की बात समझनी चाहिए।) शरीर की
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