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[सम्यग्दर्शन : भाग-1 पुद्गल का स्वभाव है। यह टोपी सफेद है, कोई काली, पीली और लाल रङ्ग की भी होती है; रङ्ग, पुद्गलद्रव्य का चिह्न है; इसलिए जो दृष्टिगोचर होता है, वह पुद्गलद्रव्य है। यह टोपी है, पुस्तक नहीं' ऐसा जाननेवाला ज्ञान है और ज्ञान, जीव का चिह्न है, इससे जीव भी सिद्ध हो गया। अब यह विचार है कि टोपी कहाँ है? यद्यपि निश्चय से तो टोपी, टोपी में ही है, परन्तु टोपी, टोपी में ही है, -ऐसा कहने से टोपी का भलीभाँति ख्याल नहीं आ सकता; इसलिए निमित्त के रूप में यह कहा जाता है कि अमुक जगह पर टोपी स्थित है। जो जगह है, वह आकाशद्रव्य का अमुक भाग है; इस प्रकार आकाशद्रव्य सिद्ध हुआ। ____ ध्यान रहे, अब इस टोपी की घड़ी (तह) की जाती है। जब टोपी सीधी थी, तब आकाश में थी और उसकी घड़ी (तह) हो जाने पर भी वह आकाश में ही है, इसलिए आकाश के निमित्त से टोपी की घड़ी का होना नहीं पहचाना जा सकता, तब फिर टोपी की घड़ी होने की जो क्रिया हुई है, उसे किस निमित्त से पहचानोगे? टोपी की घड़ी हो गयी, इसका अर्थ यह है कि पहले उसका क्षेत्र लम्बा था और वह अब अल्प क्षेत्र में समा गयी है। इस प्रकार टोपी के क्षेत्रान्तर के होने में जो वस्तु निमित्त है, वह धर्मद्रव्य है।
अब टोपी घड़ी होकर ज्यो की त्यों स्थिर पड़ी है, उसमें कौन निमित्त है? आकाशद्रव्य तो मात्र स्थान देने में निमित्त है, टोपी के चलने अथवा स्थिर रहने में आकाश निमित्त नहीं है। जब टोपी ने सीधीदशा में से टेढ़ीदशारूप होने के लिये गमन किया, तब धर्मद्रव्य का निमित्त था तो अब स्थिर रहने की क्रिया में उससे विपरीत निमित्त होना चाहिए। गति में धर्मद्रव्य निमित्त था और अब स्थिर
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