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सम्यग्दर्शन : भाग-1]
निश्चय और व्यवहार :
आत्मा का यथार्थ ज्ञान होने पर, जीव को ऐसा निश्चय होता है कि मेरा स्वभाव शुद्ध निर्दोष है; तथापि मेरे अवस्था में जो विकार और अशुद्धता है, वह मेरा दोष है; वह मेरा वास्तविक स्वरूप नहीं है, इसलिए वह त्याज्य है, हेय है। जब तक मेरा लक्ष्य किसी अन्य वस्तु में या विकार में रहेगा, तब तक अविकारीदशा नहीं होगी; किन्तु जब उस संयोग और विकार से अपने लक्ष्य को हटाकर, मैं अपने शुद्ध अविकारी ध्रुवस्वरूप में लक्ष्य को स्थिर करूँगा, तब विकार दूर होकर अविकारीदशा प्रगट होगी ।
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मेरा ज्ञानस्वरूप नित्य है और रागादि अनित्य है; एकरूप ज्ञानस्वरूप के आश्रय में रहने पर, रागादि दूर हो जाते हैं । अवस्था / पर्याय तो क्षणिक है और वह प्रतिक्षण बदलती रहती है, इसलिए उसके आश्रय से ज्ञान स्थिर नहीं रहता; किन्तु उसमें वृत्ति उद्भूत होती है, इसलिए अवस्था का लक्ष्य छोड़ना चाहियऐ और त्रैकालिक शुद्धस्वरूप पर लक्ष्य स्थापित करना चाहिये । यदि प्रकारान्तर से कहा जाये तो निश्चय स्वभाव का लक्ष्य करके व्यवहार का लक्ष्य छोड़ने से शुद्धता प्रगट होती है । सम्यग्दर्शन का फल :
चारित्र की शुद्धता एकसाथ सम्पूर्ण प्रगट नहीं हो जाती; किन्तु क्रमशः प्रगट होती है। जब तक अपूर्ण शुद्धदशा रहती है, तब तक साधकदशा कहलाती है । यदि कोई कहे कि शुद्धता कितनी प्रगट होती है? कहते हैं कि - पहले सम्यग्दर्शन- सम्यग्ज्ञान से जो आत्मस्वभाव प्रतीति में आया है, उस स्वभाव की महिमा के द्वारा वह जितने बलपूर्वक स्वद्रव्य में, एकाग्रता करता है, उतनी ही
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