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[सम्यग्दर्शन : भाग-1 ही संवर-निर्जरारूप धर्म प्रारम्भ हो जाता है और अनन्त संसार के मूलरूप मिथ्यात्व का ध्वंस होता है। अनन्त परवस्तुओं से अपने को हानि-लाभ होता है - ऐसी मान्यता दूर होने पर, अनन्त रागद्वेष की असत् क्रिया का त्याग और ज्ञान की सत्-क्रिया का ग्रहण होता है। यही सर्वप्रथम धर्म की सत् क्रिया है। इसे समझे बिना धर्म की क्रिया किञ्चित्मात्र भी नहीं हो सकती। देह तो जड़ है, उसकी क्रिया के साथ धर्म का कोई सम्बन्ध नहीं है।
आत्मा का स्वभाव कैसा है, उसकी विकारी तथा अविकारी अवस्था किस प्रकार की होती है और विकारी अवस्था के समय कैसे निमित्त का संयोग होता है एवं अविकारी अवस्था के समय कैसे निमित्त स्वयं छूट जाते हैं - यह सब जानना चाहिए, इसके लिए स्व-पर के भेदज्ञानपूर्वक नवतत्त्व का ज्ञान होना चाहिए। सम्यग्दर्शन-सम्यग्ज्ञान :
प्रश्न - आत्मा को सम्यग्ज्ञान किस उम्र में और किस दशा में प्रगट हो सकता है?
उत्तर – गृहस्थदशा में (गर्भ के भी सवा नौं माह सहित) आठ वर्ष की उम्र में भी सम्यग्ज्ञान हो सकता है।गृहस्थादशा में आत्मप्रतीति की जा सकती है। पहले तो निःशङ्क सम्यग्दर्शन प्रगट करना चाहिए, सम्यग्दर्शन के होते ही सम्यग्ज्ञान हो जाता है और सम्यग्दर्शन-सम्यग्ज्ञान होने पर, स्वभाव के पुरुषार्थ द्वारा विकार को दूर करके जीव, अविकारीदशा को प्रगट किये बिना नहीं रहता।अल्प पुरुषार्थ के कारण कदाचित् विकार के दर होने में देर लगे, तथापि उसके दर्शन-ज्ञान में मिथ्यात्व नहीं रहता।
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