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________________ www.vitragvani.com सम्यग्दर्शन : भाग-1] [ 271 इसलिए जीव-अजीव की भिन्नता समझायी जाती है । इस प्रकार नवतत्त्व का स्वरूप समझना चाहिए। द्रव्य और पर्याय: आत्मा अपनी शक्ति से त्रिकाल शुद्ध है, किन्तु उसकी वर्तमान पर्याय बदलती रहती है, अर्थात् शक्ति-स्वभाव से स्थिर रहकर भी अवस्था में परिवर्तन होता रहता है । अवस्था में स्वयं अपने स्वरूप को भूलकर जीव, मिथ्यात्वरूप महाभूल को उत्पन्न करता है, वह भूल अवस्था में है और क्योंकि अवस्था बदलती है, इसलिए वह भूल सच्ची समझ के द्वारा स्वयं दूर कर सकता है । अवस्था (पर्याय) में भूल करनेवाला जीव स्वयं है, इसलिए वह स्वयं ही भूल को दूर कर सकता है। यथार्थ समझ : -- जीव अपने स्वरूप को भूल रहा है; इसलिए वह अजीव को अपना मानता है और इसलिए पुण्य, पाप, आस्रव, बन्ध होते हैं । यथार्थ समझ के द्वारा सम्यग्दर्शन प्राप्त कर लेने पर, उसे अपना स्वरूप, अजीव और विकार से भिन्न लक्ष्य में आता है और इससे पुण्य, पाप, आस्रव, बन्ध क्रमशः दूर होकर संवर, निर्जरा, मोक्ष होता है। इसलिए सर्व प्रथम स्थूल और सूक्ष्म दोनों प्रकार के मिथ्यात्व को, यथार्थ समझ के द्वारा दूर करके, आत्मस्वरूप की यथार्थ श्रद्धा करके, सम्यग्दर्शन के द्वारा अपने स्वरूप के महाभ्रम का अभाव करना चाहिए । क्रिया और ग्रहण -त्याग : यथार्थ समझ के द्वारा सम्यग्दर्शन और सम्यग्ज्ञान प्राप्त करते Shree Kundkund - Kahan Parmarthik Trust, Mumbai.
SR No.007768
Book TitleSamyag Darshan Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKundkund Kahan Parmarthik Trust Mumbai
PublisherKundkund Kahan Parmarthik Trust Mumbai
Publication Year
Total Pages344
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size1 MB
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